पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०००

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षष्ठ सामान छाकामा । दो०-छन में प्रअ के सायकन्हि, काटे बिकट पिसाच । पनि रघुबीर निषड्न मह, प्रबिसे सब नाराच ॥६॥ भु रामचन्द्रजी के पाशों ने क्षणमा में भीषण पिशाचों को काट गिराये, फिर समस्त चाए आ कर रघुनाथजी के तरकस में प्रवेश कर गये ॥६॥ खाणों के छूटते ही क्षणमान में मसंपयों राक्षसों का संहार होना 'चपलातिशयोक्ति अलंकार है। चौ०-कुम्भकरन मन दीख बिचारी। हति छन माँझ निसाचर धारी॥ मा अति बुद्ध महा बल बोरा । क्रिय मृग नायक-नाद गभीरा ॥१॥ कुम्भकर्ण ने मन में विचार कर देखा कि इन्हों ने क्षण भर में राक्षली सेना का अन्त कर डाला। तय बहसहायती वीर अत्यन्त शेधित हुआ और सिंह के समान गम्भीर ध्वनि से गर्जना फिया ॥१॥ कोपि महीधर लेइ उखारी । डारइ जहँ मर्कट-भद-भारी । आवत देखि सैल प्रभारे । सरन्हि कादि रज सम्म करि डारे ॥२॥ कोध कर के पहाड़ों को उखाड़ लेता है और जहाँ बड़े बड़े योद्धा बन्दर हैं, वहाँ डालता है। प्रभु रामचन्द्रजी ने उन भारी पर्वतों को भावे देख बाणों से काट कर धूल के समान कर डाले आशा पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक । छोड़े अति कराल बहु सायक ॥ तन मह प्रबिसि निसरि सरजाहौँ । जनु दामिनि धन माँमा समाहीं ॥३॥ फिर रघुनाथजी ने कोध कर के धनुष तान कर यहुत से अत्यन्त भीषण बाण छोड़े। वे वाण उसके शरीर में घुस कर पार निकल जाते हैं, ऐसा मालूम होता है मानो यदल में विज. लियाँ समारदी है। ॥३॥ राक्षस का शरीर और मेध, रामचन्द्रजी के चमचमाते घाण श्रार दामिनि उपमेय उप- मान हैं। बिजली चमक करबादल में लीन होती ही है, यह 'उक्तविषया वस्तूपेक्षा अलंकार' है। सोनित सवत साह तन कार । जनु कज्जल-गिरि गेरु पनारे । बिकल बिलोकि भालुकपि धाये । बिहँसा जबहिँ निकट कपि आये ॥४॥ काले शरीर पर रक बहता हुआ ऐसा शोभित हो रहा है. मानों काजल के पर्वत में गेह के पनारे यहते हो । उसे व्याकुल देख कर भालू और बन्दर दौड़े, ज्यों ही बानर समीप आये, वह इसrun दो-महानाद करि गर्जा, कोटि कोटि गहि कीस । महि पटकई गजराज इव, सपथ करइ दससी ॥ घोर शब्द फरफ गर्जा और करोड़ों करोड़ो मन्दरों को पकड़ कर मतवाले हाथी के समान