पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१००१

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रामचरित-मानस। उन्हें धरती पर पटकता है रावण की सौगन्द करता है कि आज वानरी सेना का सर्वनाश किये बिना न छोडूंगा) ॥६॥ चौ०- भागे भालु-बलीमुख-जूथा। बृक बिलोकि जिमि मेष-बरूया ॥ चले भागि कपि भालु भवानी । बिकल पुकारत आरत बानी ॥१॥ बन्दर-भालुओं की गोल कैसे माग चली, जैसे भेड़िया को देख कर भेड़ों का झुण्ड भागता है। शिवजी कहते हैं-हे भवानी ! भालू और वानर व्याकुल हो दीनता भरी वाणी पुकारते हुए भाग चले ॥१॥ वानर-भालुओं का मिथ्याभय भावाभास है, कुम्भकर्ण के कोप रूपी ग्रह से उत्पन्न हुआ है। यह 'ऊर्जस्वित अलंकार है। यह निसिचर दुकाल सम अहई । कपिकुल-देस परन अव चहई ॥ कृपा बारिधर राम खरारी । पाहि पाहि प्रनतारति-हारी ॥२॥ यह राक्षस दुर्भिक्ष के समान है, अत्र वानर-वंश रूपी देश पर पड़ना चाहता है । हे भर के वैरी, दीन दुःखहारी, कृपा रूपी जल के धारण करनेवाले मेघ रामचन्द्रजी ! मेरी रक्षा कीजिए, इस दुष्ट से बचाइये ॥२॥ वीर का करुणरस अंग होने से 'रसवान अलंकार' है। सकरून बचन सुनत भगवाला । चले सुधारि सरासन बाना॥ राल सन निज पाछे घाली । चले . सकाप महाबल साली ॥३॥ कोशलेन्द्र भगवान करुणा भरी वाणी सुनते ही धनुष-बाण सुधार कर चले । महा बल. शाली रामचन्द्रजी अपनी सेनी को पीछे कर के क्रोध-पूर्वक आगे बढ़े ॥३॥ धनुष सर · सत सन्धाने । छूट तीर सरीर समाने । लागत सर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डालति धरा ॥४॥ धनुष खींच कर सौ बाण चलाये, वे तीर छूट कर उसके शरीर में घुस गये ! बाप लगते ही क्रोध में भर कर दोहा, पहाड़ डगमगा गये और धरती हिलने लगी ॥४॥ लीन्ह एक तेहि सैल उपाटी। रघुकुल तिलक भुजा साइ काटी। धावा बाम बाहु गिरि धारी। प्रभु साउ भुजा काटि महि पारी ॥५॥ उसने एक पहाड़ उखाड़ लिया, रघ वंश-भूषण ने उस भुजा को काट डालो। फिर मायें हाथ ले पर्वत ले कर दौड़ा, प्रभु रामचन्द्रजी ने उस वाहु को भी कोट कर ज़मीन पर गिरा दिया ॥५॥ 'काटे झुजा साह खल कैसा । पच्छ हीने मन्दर गिरि जैसा । उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका । असन चहत मानहुँ त्रयलोका ॥६॥ भुजाओं के काटने पर वह दुष्ट कैसे सोह रहा है, जैसे पंखों के बिना मन्दराचल शोभित