पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१००७

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शामचरितमानस . गहि गिरि पादप उपल नख, धाये कीस रिसाई ॥ चले तमीवर विकल-तर, गढ़ पर चढ़े पराइ ॥४॥ पर्वत, वृक्ष और पत्थर लेकर नखवाले वन्दर क्रोध कर के दौड़े। राक्षस अत्यन्त व्याकुल हो भाग चले और भाग कर किले पर चढ़ गये ७४ राक्षसों के हृदय में जो उत्साह स्थायीभाव बढ़ रहा था कि इतनेही में वानरों की मार से पूर्वोत्पन्न भाव लय हो कर भय स्थायी भाव प्रक्षल हो गया, यह भावशान्ति है। चौ०-मेघनाद के मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लोज अति लागी । तुरत गयउ गिरिवर-कन्दा । करउँ अजय-नख अस मन धरा ॥१॥ मेघनाद की सूर्छा दूर हुई उसे चेत हुआ, पिता को देख कर बड़ी लज्जा लगी। तुरन्त . पर्वत की सुन्दर गुफा में गया, ऐसा मन में निश्चय कर लिया कि अजेय यज्ञ करू (जिसमें शन जीत न सके) ॥१॥ इहाँ बिभीषन मन्त्र बिचारा । सुनहु नाथ बल अतुल उदोरा.॥ मेघनाद लख करइ अपावन । खल मायाबी देवसतावन ॥२॥ यहाँ विभीषण ने विचार कर सलाह दी कि हे उदार नाथ, अप्रमेय बली ! सुनिए, मेघनाद अपावन यज्ञ करता है, वह दुष्ट छली और देवताओं को सतानेवाला है ॥२॥ जौँ प्रनु सिद्ध होइ सो पाइहि । नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि ॥ सुनि रघुपति अतिसय सुख माना । बोले अङ्गदादि कपि नाना ॥३॥ हे प्रभो ! यदि वह सिद्ध होने पावेगा तो फिर जल्दो जीता न जायगा यह सुन कर रघुनाथजी बहुतही प्रसन्न हुए और अंगद् आदि अनेक वानरों को बुलाया !३! लछिमन सङ्ग जाहु सब बाई । करहु बिधंस यज्ञ कर जाई ॥ तुम्ह लछिमन मारेहु रन्म ओही। देखि समय सुर दुख अति मोही ॥४॥ हे भाई! तुम सब लक्ष्मण के साथ जाओ और जा कर यज्ञ का विध्वंश करो । हे लक्षमण ! तुम रण में उसे मारना, देवताओं के भयभीत देख कर मुझे बड़ा दुःख हो रहा है । मारेहु तेहि बल-बुद्धि-उपाई । जेहि छोजइ निसिचर सुनु आई ॥ जामवन्त सुग्रीव बिलीषन । सेन समेत रहह तीनिउ जन ॥५॥ हे भाई । सुनो, उसको बल और बुद्धि ले यत्न कर के मारना, जिसमें राक्षस का नाश हो । जासवान, सुग्रीव, विभीषण तीनों जन और सेना सहित में यही रहूंगा ॥५॥ जब रघुबीर दोन अनुसासन । कटि निषंग कसि साजि सरासन ॥ मनु प्रताप उर धरि रनधीरा । बाले घन इव गिरा गभीरा ॥६॥ जब रघनाथ जी ने श्राखा दी, तब कार में वरकस कस कर और धनुष सज कर रणधीर