पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१००८

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. पष्ट सोपान, लढाकारा। लक्ष्मणजी स्वामी के प्रताप को हदय में रखकर बादल के समान गम्भीर वाणी से बोले ॥६॥ लक्ष्मणजी का वधु विषयक रति भाववी ररस के अंग से वर्णित होना 'प्रेयालंकार है। जौँ तेहि आजु बधे बिनु आवउँ । ती रघुपति सेवक न कहावउँ । जौं सत्त-सङ्कार करहि सहाई । तदापि हतउ रन राम-दोहाई ॥७॥ जो उसे बाज बिना मारे पाऊँ तो रघुनाथजी का सेवक न कहाऊँगा। यदि सो शङ्कर उसफी सहायता करेंगे-रामचन्द्रजी की सौगन्द करता है, तो भी युद्ध में मासँगा ७i दो-रघुपति-धरन नाइ लिर, जलेउ तुरन्त अनन्त । अङ्गद नील मयन्द नल, सङ्ग सुभट हनुमन्त ॥५॥ रघुनाथजी के चरणों में मस्तक नवा कर तुरन्त लक्ष्मणजी चल दिये । उन के साथ में अंगद, नील, नल, ममन्द और हनुमानजी (नादि चुने सुप) यौछा चले ॥७॥ चौ०-जाइ कपिन्ह सो देखा जैसा । आहुति देत रुधिर अस मला ॥ कीन्ह कपिन्ह सब जन विधंसा । जान उठइतब करहिं प्रसंसो॥१॥ वानरों ने जाकर उसे बैठे देखा कि रक्त और मैं से की आहुति दे रहा है। बन्दरोने सम्पूर्ण यश विध्वंस पर दिया, जब नहीं उठा तब उसकी बड़ाई करते हैं ॥१॥ मेघनाद की प्रशंसा करने पर भी निन्दा प्रकट होना व्याजनिन्दा अलंकार' है। तदपि न उठइ धरेल्हि कच जाई । लातन्हि हति हति चले पराई ॥ लेइ त्रिशूल धागा कपि भागे । आये जहँ रामानुज आगे ॥२॥ तो भी नहीं उठता देख जा कर केश पकड़े और लातों से मार मार फर भाग चले । तप हाथ में निशुल ले कर दौड़ा, वानर भगे और आगे जहाँ लक्ष्मणजी हैं वहाँ माये ॥२॥ आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घार रव बारहिँ बारा॥ कोपि मरुत-सुत अङ्गद धाये । हति त्रिसूल उर धरनि गिराये ॥३॥ अतिशय क्रोध का मारा गया और बार बार भीषण ध्वनि से गर्जना करता है । अमद और पवनकुमार कोध करके चौड़े, उसने छाती में निशूल मार कर दोनों बानर श्रेष्ठको धरती पर गिरा दिया ॥३॥ प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा । सर हति कृत अनन्त जुग खंडो॥ उठि बहोरि मारुति जुराजा । हतहिँ कोपि तेहि घाव न बाजो ॥ उसने लक्ष्मणजी पर तीव्र त्रिशूल छोड़ा, अनन्त भगवान ने वाण मार कर दो टुकड़े कर दिये ! फिर वायुनन्दन और युवराज-भगद उठ कर कोधित हो मारते हैं, पर उसको चोट नहीं लगती है। 1 r