पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०१०

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पष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । बरसि सुमन दुन्दुली बजावहिँ । श्रीरघुबीर-बिमल-जस गावहि ॥ जय अनन्त जय जगदाधारा । तुम्ह प्रभु सन्न देवन्ह निस्तारा ॥२॥ फूल बरसा कर नगारे जाते हैं और श्रीरघुवीर (लक्ष्मणजी) का निर्मल यश गान करते हैं । हे अनन्त भगवान ! श्राप को जय हो, हे जगत् के आधार ! श्राय की जय हो, हे स्वामिन् ! माप ने सब देवताओं को निस्सार (छुटकारा) किया ॥२॥ अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाये । लछिमन कृपासिन्धु पहिँ आये । सुत बध सुना दसानन जनहीं। मुरछित भयउ परेउ महि तनहीं ॥३॥ देवता और सिद्ध स्तुति कर के चले गये, तय लक्ष्मणजी पासागर रामचन्द्रजी के पास आये । ज्यों ही रावण ने पुन-वध सुना, त्यों ही मूर्छित हो कर धरती पर गिर' पड़ा॥३॥ मन्दोदरी रुदन कर भारी । उर ताड़त बहु भाँति पुकारी ॥ नगर लोग सब व्याकुल सेवा । सकल कहहिँ दसकन्धर पाचा ren मन्दोदरी बड़ा रोदन कर छाती पीटती और बहुत तरह से चिल्लाती है। नगर के सब लोग सोच से व्याकुल हो गये, सभी कहते हैं कि रावण नीच है ॥ सारे नगर और राजमहल में शोक से करुणरस छा गया है। दो-तब दसकंठ विविध विधि, समुझाई सब नारि । नस्वर-रूप जगत सब, देखहु हृदय बिचारि ॥७७॥ तब रावण भनेक प्रकार से सम्पूर्ण त्रियों को समझाया, उसने कहा-मन में विचार कर देखो सारा जगत नाशवान है 1958 इस घरापरकाल में भी चित्त को रद करने के लिए रावण का त्रियों को समझाना 'धृति सञ्चारी भाव, है। चौ०-तिन्हहिं ज्ञान उपदेसा रावन । आपुन मन्द कथा सुम-पावन ॥ पर-उपदेस कुसल बहुतेरे । जे आचाहि ते नर न घनेरे ॥१॥ रावण ने उन स्त्रियों को तो शानेपदेश शिया, पर आप नीच है, किन्तु कथा ( बात ) पवित्र कल्याणकारी है। दूसरों को शिक्षा देने में बहुतेरे चतुर हैं, पर जो वैसा करते हैं वे मनुष्य बहुत नहीं हैं ॥१॥ निसा सिरानि भयउ मिनुसारा । लगे भालु कपि चारिहु द्वारा ॥ सुभट बोलाइ दसानन बोला । रन-सनमुख जा कर मन डोला ॥२॥ रात बीती सबेरा हुमा, भालू और वानर चारों फाटक पर जा डटे । योद्धाओं को बुला कररावण कहने लगा युद्ध के सामने जिसका मन डांवाडोल हो ॥२॥ ।