पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०११

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रामचरित मानस । सो अवहीं बरु जाउ पराई । सङजुग-बिमुख भये न मलाई । निज-भुज-अल मैं बैर बढ़ाया । देडहउँ उतर जो रिपु चढ़ि आवा ॥३॥ वह दल्कि अभी भाग जाय. पर संग्राम-भूमि से मुँह मोड़ने पर भलाई नहीं है। मैं ने अपनी भुजाओं के बल से बैर बढ़ाया है, जो शत्रु चढ़ पाया है उसको मैं उत्तर दूंगा अर्थात् तुम लोग भाग भी जाओगे तो मैं अकेला लडूंगा ॥३॥ अस कहि मरुत-बेग रथ साजा । बाजे सकल जुझाऊ - बाजा॥ क्षले बीर सब अतुलित-बली । जनु कज्जल के आँधी चली ॥४॥ ऐसा कह कर पवन के समान वेगवाला रथ सजवाया और सम्पूर्ण युद्ध के बाजे बजने लगे। अप्रमेय बलाबाले सम योद्धा चले, ऐसा मालूम होता है मानों काजल की आँधी बली हो ॥४॥ उनसगुन अमित होहि तेहि काला । गनइन भुज-चल गर्ब बिसाला॥५॥ उस समय अपरिमित असगुन हो रहे हैं. पर अपनी भुजाओं के बहुत बड़े धमरा से उन्हें गिनता नहीं है ॥५॥ इरिगीतिका-छन्द । अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन, खबहिँ आयुध हाथ ते । भट गिरत रथ तै बाजि गज चिक्करत भाजहिँ साथ 11, गोमायु-गीध-करार-खर-रव, स्वान घालहिं अति घने । जनु कालदूत उलूक बोलहिँ, बचन परम्म भयावने ॥४॥ अत्यन्त गर्व से सगुन या असगुन नहीं गिनता है, हथियार हाथ से गिर रहे हैं वीर लोग रथ से गिर पड़ते हैं और घोड़े हाथी चिग्धा मार कर साथ से अलग भागते हैं। सियार, गिद्ध, कौमा, गदहों की अावाज़ हो रही है तथा बहुत घने कुत्ते बोलते हैं । उल्लू पक्षी बड़े भयावने शब्द (भुश्रा मुभा) बोल रहे हैं, वह ऐसा मालूम होतो है, मानों काल के दूत बोलते हो॥४॥ दो०-ताहि कि सम्पति सगुन सुभ, सपनेहुँ मन बिस्राम । भूत-द्रोह-रत मोह बस, राम बिमुख रत काम ॥७॥ क्या उसको स्वप्न में भी सम्पत्ति, सगुन, कल्याण और सन में चैन मिल सकता है ? जो जीवों के द्रोह में तत्पर, अज्ञान के अधीन, वासनाओं में अनुरक्त और श्रीरामचन्द्रजी से विमुख है ? (कदापि नहाँ) | SE || चौ०--चलेउ निसाचर कटक अपारा । चतुरङ्गिनी अनी बहु धारा ॥ विविध भौति बाहन रथ जाना। बिपुलबरन पताक वजनाना॥ राक्षसों की अपार सेना चली, जिसमें चतुरङ्गिणी दल बा श्रेणियों में था। अनेक प्रकार 1