पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०१३

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९३८ रामचरित मानस । I हरिगीलिका-छन्द । धाये मिसाल कराल अरकट,-भालु काल समान ते । मानहुँ सपच्छ उड़ाहिँ भूधर, वृन्द · नाना बान ते । नख दक्षन सैल महाद्रुलायुध, सबल सङ्क न मानहौं । जय नाम राजन अन्तगज मृगराज सुजस बखानहीं ॥५॥ काल के समान भयचर विशाल बन्दर और भालू दौड़े वे ऐसे मालूम होते हैं माने नाना रङ्ग के पह वाले पहाड़ के झुण्ड उड़ते हैं।। बलशाली शङ्का न माननेवाले माखन, दाँत, पहाड़ और सारी वृक्षों के हथियार लिये हैं। रावण रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह स्वरूप राम. चन्द्रजी का सुयश बखानते हैं और जय जयकार करते हैं ॥५॥ दो-दुहुँ दिसि जय जयकार करि, निज निज जारी जानि । खिरे बीर इत रघुपतिहि, उत रावनहिँ बखानि ॥७॥ दोनों ओर से जय जयकार कर के अपनी अपनी जोड़ी जान कर, इधर रघुनाथजी की और उधर रावण की बड़ाई करते योद्धा भिड़ गये (युद्ध ठन गया) ॥६॥ गुटका में 'भिरे वीर इत राम हित, उत्त राषनहि बखानि पाठ है। चौमावन स्थी बिरथ रघुबीरो । देखि बिभीषन भयउ अधीरा ॥ अधिक प्रीति मन भा सन्देहा। बन्दि चरन कह सहित सनेहा ॥१॥ रावण को रथ पर सवार और रघुनाथजी को बिना रथ के देख कर विभीषण अधीर हो गये। अत्यन्त लेह के कारण मन में सन्देह हुआ, चरणों में प्रणाम कर प्रेम-पूर्वक कहने लगे ॥१ इटहानि के लौच से प्रोति घश विभीषण के मन में सन्देह होना शङ्का सञ्चारीभाव है। लाथ न रथ नहिँ तनु पत्राना । केहि बिधि जितब बीर बलवाना । सुनहु सखा कह कृपानिधाना । जेहि जय होइ सो स्यन्दन आना ॥२॥ हे नाथ ! श्राप के न रथ है न कवच और न पाँव में जूता है, फिर इतने बड़े बलवान योद्धा को श्राप कैले जीतेगे १ कपानिधान रामचन्द्रजी ने कहा है मित्र ! सुनिए, जिस से जीत होती है. वह और ही रथ है ॥२॥ सौरज धीरज तेहि रथ चाका । सत्य. साल दृढ़ ध्वजा पंताका ॥ बल-बिबेक-दम-परहित घोरे । छमा-कृपा-समता रजु जोरे ॥३॥ शूरता और धीरज उस रथ के पहिये हैं, सत्य मजबूत ध्वजा और शील पताका है । बल, शान, इन्द्रियदमन और परोपकार घोड़े हैं, क्षमा अनुग्रह और समता की रस्सी से जोड़े and रहते हैं ॥३॥ .