पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०१६

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1 षष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । धरू भारु काटु पछारु घोर, गिरा गगन-महि भरि रही। जय राम जो टन ते कुलिस कर, कुलिस से कर तृन सही ॥७॥ पकड़ कर गाल फाड़ते पेट चीर डालते और उनकी अंतड़ियाँ गले में पहन लेते हैं। वे ऐसे मालूम होते हैं मान नृसिंह भगवान बात सा शरीर धारण कर के संग्राम-भूमि में खेख करते हो । पफसो, मारो, काटो, पछाड़ो की भीषण ध्वनि प्राकाश और पृथ्वो मैं मर रही है। सब लोग रामचन्द्रजी की जय जयकार करते हैं, जो सचमुच तण को बज़ और वन को तिमका कर देते हैं। वन के समान राक्षस तिनके हो गए और तिनले के बराबर बन्दर-भालू वन बन गये, यह पाच्यसिद्धास गुणीभूत व्या है। दो-निज-दल बिचलत देखेति, बीस भुजा दस चाप। रथ चढ़ि चलेउ दसानन, फिरहु फिरा करि दाप ॥१॥ अपनी सेना को विचलित देख कर बोलों हाथों में दख धनुष लिये हुए रथ पर चढ़ कर रावण चला और शोध कर के लौटो लौटो ललकारा ॥१॥ रावण की ललकार धोनरी सेना को लक्ष्य कर है जो राक्षसी दल का संहार कर रही थी। चौधायेउ परम छ दसकन्धर । सनमुख चले हूह दै अन्दर । गहि कर पादप-उपल-पहारा । डारेन्हि ता पर एकहि बारा ॥१॥ रावण अत्यन्त क्रोधित होकर दौड़ा, सामने बन्दर हल्ला मचा कर चले । वृक्ष पत्थर और पहाड़ हाथ में लेकर एक साथ ही उस पर फेंका ॥१॥ लागहिँ सैल बज्न तनु तासू । खंड खंड होइ फूटहि आसू ॥ चला न अचल रहा रथ रोपी । रन दुर्मद रावल अति कोपी ॥२॥ उसके बजवत शरीर में पर्वत लगते हैं। वे तुरन्त फूट कर टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं । युद्ध का घोर अहंकारी और अत्यन्त फोधी रावण हटा नहीं, रथ रोज्ञ कर अचल खड़ा रहा ॥२॥ जब उसयो निश्चय हो गया कि वन्चरों की मार से मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता, तब । कुद्ध होकर रथ से कूद पड़ा और- इत उस झपटि दपदि कपि जोधा । मई लाग भयउ अति क्रोधा॥ चले पराई भालु कपि नाना । त्राहि त्राहि अङ्गद हनुमाना ॥३॥ इधर उधर झपट डपट कर चन्दर योद्धाओं को मारने लगा और बड़ाही कोधित हुआ। असंश्यों मालू बन्दर भाग चले, सब पुकार रहे हैं, हनूमानजी रक्षा कीजिये, अंगदजी रक्षा कीजिये ॥३॥