पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०२१

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डाई। रामचरितमानस तब उठेउ टुकृतान्त सम गहि, वरन . बोनर एहि बीच कपिन्ह बिधंसकृत मख, देखि मन महँ हाई ॥११॥ जब नहीं निहारता, तब शोध कर वानर दाँतों से काटने और लातों से मारते हैं। सियों के केश पाड़ कर बाहर घसीट लाये, वे अत्यन्त दुःख भरी वाणी से चिल्लाती हैं। तब रावण प्रोधित हो कर उठा और काल के समान वानरों की टाँग पकड़ कर पटकने लगा।इसी बीच में वन्दरों ने यज्ञ का सत्यानाश कर डाला, यह देख कर मन में हार गया ॥ ११ ॥ रावण से शत्रुता के कारण स्त्रियों को सताना, शत्रुपक्षीय 'प्रत्यनीक अलंकार' है । इस प्रस को रामचन्द्रिका में केशवदास ने सामान्य अलंकार में बहुत ही मनोरम वर्णन किया है ! यथा-भजी देति के शकि लद्देश वाला। दुरी दौरि मन्दोदरी चित्रशाला तहाँ दौरिगो बालि को पूत फूल्यो । सवै चित्र की पुत्रिका देखि भूल्य ॥ १॥ गदै दौरि जाको तजै ताकि ताको । तजै जा दिशा को मजै बाम था। भले कै निहारी सपै चित्र सारी लहै सुन्दरी क्यो दरी को बिहारी ॥२॥ दो०-जग्य विधन्सि कुसल कपि, आये रघुपति पास । चलेउ लङ्कपति क्रुद्ध होइ, त्यागि जिवन के आस ! यज्ञ विध्वंश कर के वानर-गण कुशले पूर्वक रघुनाथजी के पास आये। रावण जीने की आशा स्याग क्रोधित हो कर चला ॥५॥ चौ०-चलत होहिं अति असुभ भयङ्कर । बैठहि गीध उड़ाईं सिरन्ह पर ॥ अयउ काल-अस-काहुन माना । कहेसि बजावहु जुड़ निसाना १४ चलते समय बड़े भयङ्कर अशकुन हो रहे हैं, गिद्ध उड़ कर सिरों पर यैठ जाते हैं। पर वह काल के अधीन हो गया है किसी को नहीं माना, कहा कि युद्ध का डका बजाओ ॥१॥ चली समीधर अनी अपारा । बहु गज-रध-पदाति-असवारा। प्रभु सनमुख धाये खल कैसे। सलम-समूह अनल कह जैसे ॥२॥ राक्षसों की मापार लेना चली, उसमें बहुत से हाथी, स्थ, पैदल और सवार हैं। प्रभु रामचन्द्रजी के सामने वे दुष्ट कैसे छोड़े जैसे समूह पाँखी अग्नि की ओर दौड़ती हैं ॥५॥ इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही । दारुन विपति हमहि एहि दीन्ही। अन्न जनि राख खेलाबहु' एही। अतिसय दुखित होति बैदेही ॥३॥ यहाँ देवताओं ने स्तुति करके कहा कि सने हम लोगों को भीषण कष्ट दिया है । हे रामचन्द्रजी ! अब इसको मत खेलाइये, (जल्दी बध कीजिये) जानकीजी अत्यन्त दुःखित हो जानकीजी को दुखी कह कर अपने दुःख दूर करने की प्रार्थना करने में पर्यायाति की ध्वनि है। रही हैं ॥३॥