पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०२५

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640 रामचरित-मानसे । हरिगीतका-छन्द। बालहिं जो जय जय मुंड एंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं । खप्परिन्ह खरग अलुजिक जुज्झहि, सुभट भटन्ह ढहावहीं । निसिचर बरूथ बिर्दि गर्जहि, मालु कपि दर्पित भये । सङ्ग्राम-अङ्गन सुभट सावहि, राम-सर निकरन्हि हये।१४॥ सिरतो जय जय बोलते हैं और विना मस्तक की धड़े प्रचण्ड वेग से दौड़ रही हैं। खोपड़ियों पर पक्षी उलझ कर लड़ते हैं, अच्छे योद्धा भटों को गिरा रहे हैं। वानर-और भालू क्रोधित हुए झुण्ड के झुण्ड राक्षसों का संहार कर गर्जते हैं। रणभूमि में रामचन्द्रजी के समूह बाण से ध्वंस होकर राक्षस सट लेोते जा रहे हैं ॥ १४ ॥ इस प्रकरण में घृणा स्थायीभाव है मु का ढेर और भूत प्रेतादि का दर्शन पालम्बन विभाव है, गोधों का प्राँत खींचना, सियारों का माँस खाना और पिशाचिनियों का रकपान फरना आदि इद्दीपन विभाव है। इस भाषण घटना को देख धैर्यहत होना, रोमाव हो पाना अनुभाव है । श्रावेग, मोह, अपस्मारादि सम्वाभावों से परिपूर्ण 'वीभत्स रस' हुमा है। इस प्रसंग में कविजी ने वर्षा का सारूपक वर्णन किया है। दो०- रावन हृदय विचारा, मा निसिचर संहार । मैं अकेल कपि भालु बहु, माया करउँ अपार ८८॥ रावण ने मन में सोचा कि राक्षसों का संहार हो गया। अब मैं अकेला हूँ और बानर मालू बहुत हैं, इसलिये गहरी माया का चौ०-देवन्ह प्रभुहि पयादे.देखा । उपजा उर अति छाम बिसेखा । सुरपति मिजब्रय तुरत पठावा । हरष सहित मातलि लेइ आवा ॥१॥ देवताओं ने प्रभु रामचन्द्रजी को पैदल देखा, उनके मन में बहुत बड़ा भय उत्पन्न हुआ। देवराज-इन्द्र ने तुरन्त अपना रथ भेजा, प्रसन्नता के साथ मातिल (इन्द्र का सारथी) उसको लेकर शाया ॥१॥ यहाँ लोग शंका करते हैं कि इतना युद्ध हो जाने पर तब देवताओं ने रघुनाथजी को पैदल देखा, इसका कारण क्या है ? उत्तर अबतक-रावण से मुठभेड़ नहीं हुई। राक्षसों के वध में लगे थे, जब रावण से लड़ने का समय आया तब पैदल देख कर इन्द्र ने रथ भेजा । अथवा जबतक रावण के सहायक योवा मौजूद थे तबतक भय के कारण शंका बनी थी, इससे उन्हें सूझ नहीं पड़ा। जब रावण अकेला हो गया तब शंका और भय जाता रहा, मन में भरोसा हुआ कि रामचन्द्रजी अवश्य ही रावण का वध करेंगे, तब रथ भेजा। तेजपुञ्ज रथ दिव्य ' अनूपा । हरषि चढ़े कोसलपुरभूपा ॥ चल तुरग मनोहर चारी । अजर अमर मन सम गतिकारो ॥२॥ तेज की राशि दिव्य अनुपम रथ पर अयोध्यापुरी के राजा हर्ष पूर्वक चढ़े। उसके चारों .