पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०२७

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.' . 1 ६५२: रामचरित मानस । जीतेहु जे भट सञ्जग माहीं । सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं । रावन नाम जगत जस जाना । लोकप जाके बन्दीखाना ॥२॥ रावण ने कहा-अरे तपस्वी! सुन, जिन वारों को तू ने समर में जीत लिया है मैं उनके समान नहीं है। मेरा शवण नोम है और मेरे यश को संसार जानता है कि जिसके कैदखाने में लेोकपाल (इन्द्रादि) वन्दी हैं ।।२।। योखापन प्रसिद्ध वस्तु है, उसको रावण .प्रत्यक्ष निषेध करता है कि मैं उन वीरे में पही हूँ जिनको तुमने समर में जीत लिया 'प्रतिषेध अलंकार है। खर-दूषन-कबन्ध तुम्ह मारा । बधेहु व्याध इव. बालि बिचारा निसिधर-निकर सुभट संहारेहु । कुम्भकरन घननादहि मारेहु ॥३॥ तुमने रखर, दूषण और कपन्ध को मार डाला, घेचारे बाली को व्याधा की तरह (पि. कर धोखे ले ) वध किया । बड़े बड़े वीर राक्षसों का संहार कर के कुम्भकर्ण और मेघनाद को मार डाला आजु बयर सब लेउँ निशाही । जौँ रन भूपं भाजि नहिँ जाही॥ आजु करउँ खलु काल-हवाले । परेहु कठिन रावन के पाले ॥४॥ श्राज सय का बैर चुका लूँगा, अरे भूप ! यदि तू रणभूमि से भाग न जायगा। आज निश्चय ही तुझे काल के हवाले करूंगा, कठिन (भद) रावण के पोले पड़े हो ॥४॥ बचना कठिन है, यह व्यंगार्थ और.वाच्या घरावर होने से गुणीभूत व्यंग है। सुनि दुर्बचनं काल-बस जाना । बिहँसि बधन कह कृपानिधाना । सत्य सत्य सा लव प्रभुताई। जलपसि जनि देखाउ मनुताई ॥५॥ रावण के दुर्वचन को सुन कर उसको काल के वश जान कृपानिधान राम. चन्द्रजी हँस हर वचन बोले। तेरी महिमा सब सत्य है, पर बक मते, बहादुरी कर के दिखा ॥५॥ हरिगीतिका-छन्द । जनि जल्पना करि सुजस नासहि, नीति सुनहि करहिं छमा। संसार महँ पूरुष त्रिविधि' पाटल रसाल. पनस. समाः ॥ एक-सुमन-प्रद एक-सुमन-फल एक, फलई केवल लांगही ॥ एक-कहहिं कहहिँ-करहि अपर एक, करहिं कहत न बागही ॥१६॥ व्यर्थ चकवाद कर के अपना सुयश न नसा, नीति सुनकर सन्तोष ग्रहण कर । संसार में गुलाब, आम और कटहर की तरह तीन प्रकार के पुरुष हैं। एक फूल देनेवाले, एक फूल और फल देनेवाले, एक में केवल .फल ही लगते हैं (फूल नहीं) । उसी तरह एक कहते ।