पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०३१

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रामचरित मानस। शोभित हो रहे हैं, मानों सूर्य कुपित हो कर अपनी समूह किरणों से जहाँ तहाँ राहु को छेद (कर माला बना) रहे हो ॥१८॥ राहु केतु का आकाश में दौड़ना सिद्ध आधार है, वे रामबाण से बिधे हैं इससे गिरने नहीं पाते। इस अहेतु को हेव ठहराकर उत्प्रेक्षा करना 'मिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा' है और दूसरी सूर्य की किरणों से राहु का पोहा जाना प्रसिद्ध आधार है, इस अहेतु में हेतु की कल्पना करना 'असिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार' है। देव-जिमि जिमि प्रश्न हर तासु सिर, तिमि तिमि होहिं अपार । सेक्त विषय बियर्ध जिमि, नित नित नूतन मार ॥२॥ जैसे जैसे प्रभु रामचन्द्रजी उसके सिरों को काटते हैं, तैसे तैसे वे इस तरह अपार बढ़ते जा रहे हैं, जैसे विषय के लेवन से दिन दिन नवीन कामदेव बढ़ता है ॥ ३२॥ चौ० दसमुख देखि निरन्ह कै बाढ़ी । बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी। गर्जेउ मूढ़ महा-अभिमानी । धायउ दसउ सरासन तानी । सिरों की बढ़ती देख कर रावण को मरना भूल गया और बड़ा क्रोध हुना । दसों हाथों में धनुष तान फार वह महा अहकारी सूर्ख गर्ज कर दौड़ा ॥१॥ समर-भूमि दलकन्धर कोप्यो । बरषि बान रघुपति रथ तान्यो । दंड एक रथ देखि न परेऊ । जनु निहार महँ दिनकर दुरेऊ ॥२॥ रणभूमि में क्रोधित हुश्रा रावण वाणों की वर्षा करके रधुनाथजी के रथ को ढंक दिया। एक घड़ी पर्य्यन्त रथ देख ही न पड़ा, ऐला मालूम होता है मानों कुहरे में सूर्य छिपे हो ॥२॥ हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा । तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा । सर निवारि रिपु के सिर काटे । ते दिसि बिदिसि गगनमहि पाटे ॥३॥ जब देवताओं ने हाहाकार किया, तब प्रभु रामचन्द्र जी ने क्रोध कर धनुष हाथ में लिया। शशु के बाण को निवारण कर उसके सिर काटे, वे दिशा-विदिशा, आकाश और पृथ्वी में भर गये॥३॥ काटे लिए नम-मारग धावहिँ । जय जय धुनि करि भय उपजावहि ॥ कह लछिमन हनुमान कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा ॥४॥ कटे हुए सिर आकाश मार्ग में दौड़ते हैं और जय जय शब्द करके भय उत्पन्न करते हैं। लक्ष्मण कहाँ हैं ? हनूमान कहाँ है ? सुग्रीव कहाँ हैं । अयोध्या नरेश रघुवीर कहाँ हैं ? (यह कहते हुए तिर आकाश में उड़ रहे हैं) uan निराधार आकाश में शिरों का उड़ना प्रथम विशेष है और कट जाने पर बोलना द्वितीय धिभावना है। दोनों की संसृष्टि है।