पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०३२

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1 षष्ठ सोपान, लकाकाण्ड । हरिगीतिका बन्द। कह राम कहि सिर निकर घाये, देखि मर्कट भजि चले। सन्धानि धनु रघुबंस-मनि हँसि, सरन्ह सिर मेधे भले । सिर-मालिका कर कालिका गहि, बृन्द बुन्दन्हि बहु मिली ! । करि रुधिर सरि सज्जन अनहुँ सङ्काम-शट पूजन चली ॥१॥ राम कहाँ है ? कह कर मस्तकों के झुण्ड दौड़ते हैं, यह देख कर वानर भाग चते । रघुकुल भूषण ने हँस कर धनुष तान दाणों से उन सिरों को अच्छी तरह छेद दिये। हाथों में मुण्डों की माला लिये अण्ड को झुण्ड बहुत सी योगिनियाँ मिल कर विहार करती हैं, वे ऐसी मालूम हो रही हैं मानो रक को नदी में स्नान कर के युख रूपी यड़ वृक्ष की पूजा करने चली हो ॥१॥ सिरों के अयथार्थ भय से धान का भागना भयानक रसाभास है। जेठमण श्रमावश्या को खियाँ बट वृक्ष का पूजा करती ही है, युद्ध को घट का रूपण देकर उसकी उत्प्रेक्षा करना 'उतविषया वस्तूस्प्रेक्षा है। दो-पुनि दसकंठ कुद्ध होइ, छाड़ी सक्ति प्रचंड । चली बिभीषन सनमुख, अनहुँ काल कर दंड ॥३॥ फिरोधित होकर रावण ने तीक्ष्ण साँगी छोड़ी, वह विभीषण के सामने ऐसी चली माना काल का दण्ड हो ॥३॥ चौर o-आवत देखि सक्ति खर धारा । मनसारति हर विरद समारो। तुरस बिभीषन पाछे मेला । सलमुख राम सहेउ सो सेला ॥१॥ ती धार की साँगीको भाते देख कर शरणागतों के दुःख हरने की नामवरी का ख्याल कर के विभीषण को तुरन्त अपने पीछे कर लिया और सामने हो कर रामचन्द्रगी ने उस शक्ति का महार साप सहन कियो ॥१॥ गुटका 'मैं' पानत देखि शक्ति प्रति घोरा। अनारति मान पन मोरा' पाठ है। लागि सक्ति अरछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई । देखि बिभीषन प्रभु सम पायो । गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धाये ॥२॥ शक्ति लगने से कुछ सूर्चा हुई, प्रभु ने खेल किया और देवताओं में, व्याकुलता छा गई। विभीषण ने देखा कि रामचन्द्रजी को कष्ट पहुँचा, वे हाथ में गदा लेकर झोधित हो दौड़े ॥२॥ रे कुभाग्य सठ मन्द कुबुद्ध । तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे । ‘सादर सिंव कहँ सीस चढ़ाये । एक एक के कोटिन्ह पाये ॥३॥ 'विभीषण ने कहा-अरे अमागे, दुध, नीच, बोटी बुनियाले ! तू ने देवता, मनुष्य, मुनि