पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०३४

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षष्ट सोपान, लङ्काकाण्ड । वहाँ नछे गये । फिर ललकार कर हनुमानजी ने रावण को सारा और पूछ फैला कर नाश की और चले ॥२॥ गहेसि पूँछ कपि सहित उड़ाना । पुनि फिरि मिरेउ प्रबल हनुमाना। लरत अकास जुगल सम जोधा । एकहि एक हनत करि क्रोधा ॥३॥ रावण ने पूस पकड़ लो, पवनकुमार उसके पहिन उड़े, फिर महारलो हनूमानजी बोट कर मिड़ गये। दोनों समान योया आकाश में लड़ने लगे, क्रोध पर के एक दूसरे को मारते ॥३॥ पुनि और फिरि शव में पुनरुक्ति का आभास है, किन्तु पुनरुमित नहीं है। एक फिर का बोधक दूसरा धूमने या लौटने का सूचक है। यह 'पुनरुक्तिवसमास अलंकार है। बिना भाधार के श्राकाश में स्थित होकर देशनों महावीरा का तड़ना 'प्रथम विशेष अलंकार है। साहहिं नल कल बल बहु काहीं । कज्जल गिरि सुमेरु जनु लरहीं। बुधि बल निसिचर परइ न मारेउ। तम मारुत-सुत प्रा सम्भारेउ॥४॥ भामाश में छल यल करते पेमे शे'मिन हो रहे हैं मान काजल का पहा और सुमेर लड़ते हो। जब बुद्धि-बल से राक्षस गिराये न गिरा, तर पवनकुमार ने प्रभु रामचन्द्रजी का स्मरण किया हरिगीतिका-छन्द। सम्भारि नोरधु धीर धीर प्रचारि कपि रावन हन्यो। महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह, जुगल कहँ जय जय भन्यो । हनुमन्त. सङ्कट देखि मर्कट,-भालु क्रोघातुर चले। रन-मत्त रावन सफल सुभट प्रचंड भुज-अल दलमले ॥२१॥ धीरधान हनुमानजी रघुनाथजी का स्मरण कर के ललकार कर रावण को मारा। यह धरती पर गिरते ही फिर उठ कर लड़ने लगा, दोनों वीरों का जय जयकार देवतावन्द बोल रहे हैं (जब रावण मूर्छित है। भूमि पर गिरा, साथ ही हनुमानजी भी जमीन पर छा गये) । हनूमा. मजी को सङ्कट में देख कर वानर-भालू कोधित हो पौड़े। रण के मद में मत्वाले रावण ने समस्त योद्धाओं को अपने प्रचण्ड भुज-मता से मर्दन कर डाला ॥ २९ ॥ रघुभीर प्रचारे, धाये कील प्रचंड । कपि-दल प्रथल देखि तेहि, कोलह प्रगट पाखंड ॥५॥ तब रघुनाथजी ने ललकारा, वानर प्रचण्ड वेग' से दौड़े। वानरी सेना का बड़ा पल देश कर उसने माया प्रकट की। 8५ ॥ चौ अन्तर्धान भयउछन एका । पुनि प्रगटे खल रूप अनेका ॥ रघुपति कटक भालु कपि जेते । जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते ॥१॥ एक क्षण भर माश्य होगया, फिर उस खल ने अनेक रूप प्रकट किये । रघुनाथजी की दो-तब