पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०३६

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षष्ठ सापान, लङ्काकाण्ड । दो०-सुर बानर देखें बिकल , हँसे कोसलाघोस । सजि सारङ्ग एक सर, हते सकल दससीस ॥६॥ देवता और बन्दरों को व्याकुल देख कर फौशलाधीश हसे । शा-धनुष बन कर एक ही वाण से सम्पूर्ण रावणों का नाश कर दिया ॥ ६६ ॥ चौ०-अ छन महं माया सब कोटी। जिमि पनि उये जाहिं तम फाटी ॥ रावन एक देखि सुर हरणे । फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरणे ॥१॥ रामनन्दजी ने क्षणमात्र में सब माया काट दी, समस्त रावण इस तरह नष्ट हो गये जैसे सूर्योदय से अन्धकार फट जाता है। एक रावण देख कर देवता प्रसन्न हुए और प्रभु पर फूलों की वर्षा कर के लौटे ॥१॥ भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे। फिरे एक एकन्ह तर टेरे॥ प्रभु बल पाइ मालु कपि धाये । तरल तमकि समग-महि आये ॥२॥ रघुनाथजी ने भुजा उठा कर वानरों को फेरा, तप एक दूसरे को पुकार पुकार फर वे फिरे । स्वामी का पस पा कर भालू-वन्द दोड़े, क्रोधित हो शीघ्रता से रणभूमि में पाये ॥२॥ अस्तुति करत देवतन्हि देखे । भयउँ एक मैं इन्ह के लेखे ॥ सठहु सदा तुम्ह मार सरायल । अस कहि कोपि गगन पथ धायल ॥३॥ देवताओं को स्तुति करते देख कर (रावण को बड़ा कोध हुआ, उसने समझा कि मैं इनके लेख्ने अकेला हो गया है (तब तो निर्भय है। मेरे सामने शत्रु की प्रशंसा करते हैं, प्रत्यक्ष में ललकारा)। अरे तुम्टो ! तुम सदा मेरे लतमहर रहे, ऐसा कहकर क्रोधित हो श्राफाश-मार्ग हाहाकार करत सुरु भागे। खलहु जाहु कह मारे आगे ॥ देखि बिकल सुर अङ्गद धायो । कूदि चरन गहि भूमि गिराया ॥४॥ देवतागण हाहाकार करते हुए मागे, रावण ने हाँक दो-अरे खो ! मेरे सामने से कहाँ जानोगे । देवताओं को व्याकुल देख कर पद दौड़े और उछल कर पाँव पकड़ धरती पर गिरा दिया ॥४॥ हरिगीलिका-छन्द । गहि भूमि पारयो लात मारयो, बालि-सुत प्रा पहिँ गयो। सम्भारि उठिं दसकंठ घोर कठोर रव गर्जत भयो । करि दाप चाप चढाइ दस सन्धानि सर बहु बरषई। किय सकल भट घायल भयाकुल, देखि निज बल हरपई ॥l. मैं दौड़ा ॥३॥ . पकड़ कर भूमि पर पछाड़ दिया और लात मार कर यासिकुमार प्रभु रामचन्द्रजी के पास गये। रावण संभल कर उठा भार अत्यन्त भीषणध्वनि से गर्जना को क्रोध दर के बसों