पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०३८

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पष्ट सोपान, लङ्काकाण्ड । जाते हैं, हाथों पर फिरते हैं, ऐसा मालूम होता है मानों दो भ्रमर कमल के मन में विवरण करते हो॥४॥ रावण के फर कमलवन और. नल नील समर को उपमेय उपमान हैं। एक बाहु से दूसरी पर जल्दी जल्दी जाना और पकड़ में माना उत्प्रेक्षा का विषय है । कमल पन में अमर विहार करते पी है, यह 'उक्तविषया पस्सूत्प्रेक्षा अलंकार' है। गुटका में 'रुधिर देखि विषाद पर भारी पाठ है। वहाँ अर्थ होगा-खून देख कर मन में बड़ो दुःख हुआ। कोपि कूदि दोउ धरेखि बहारी । महि पटकत राजे झुजा मरोरी। पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे । सरन्ह मारि घायल कणि कोल्हे ॥३॥ फिर क्रोधित हो दोनों धीर दे, रावण ने पकड़ कर धरती में पटकना चाहा, पर वे भुजा मरोड़ कर भाग गये। फिर रावण क्रोध से दस धनुष हाथ में लिया और बाणों से मार कर बन्दरों को घायल कर दिया ॥५॥ हनुमदादि सुरछित करि बन्दर । पाइ प्रदोष हरथ दसरुन्धर । मुरछित देखि सकल कपि बीरा । जामवन्त धायउ रनधीरा ॥६॥ हनूमान धादि गन्दरों को मूर्छित कर साहात पाकर पशान प्रसन्न हुआ। सम्पूर्ण वानर वीरों को मूर्छित देख कर रणधीर जाम्बवान दौड़े ॥ ६ ॥ सन्ध्याकाल पाकर रावण का प्रसस होना अर्थात् अाकस्मिक कारणान्सर के योग से सुगमता प्राप्त होगा 'समाधि अलंकार' है क्योंकि अँधेरा पा कर राक्षसों का बल बढ़ता है और बन्दरों को कम सुझ पड़ने से निपलता भाती है। सङ्ग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी। भयउ क्रुद्ध राशन बलवाना । गहि पद महि पटझइ भट नाना ॥७॥ साथ मैं भालू पर्वत और वृक्ष लिये हुए ललकार सलकार कर मारने लगे। पलवान रावण कोधित हुआ, असंख्यों योद्धाओं से पाँव पकड़ कर पृथ्वी पर पटकता है | देखि मालुपति निज दल पाता । कोपि माँक उर मारेसि लाता ॥ अपनी सेना का संहार घेख कर क्रोधित हो जाम्यवान ने बीच छाती में लात मारा हरिगीतिका-छन्द । उर लात घात प्रचंड लागत, निकल रथ त महि परा। गहि भालु बीसहु कर मनहुँ कालन्ह बसे निसि मधुकरा॥ मुरछित बिलोकि बहारि पद हति, भालुपति प्रभु पहिं गयो। निसि जानि स्यन्दन घालि तेहि तब, सूत जतन करत भयो ॥२॥ छाती में लात की गहरी चोट लगवे ही व्याकुल हो कर रथ से भूमि में गिर पड़ा। पर बोसों हाथों में भाल योगायों को पकड़े है, वह ऐसा मालूम होता है माने रात में भंवरे कमल ।