पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०३९

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रामचरित-मानस। में निवास किये हो । रावण को मूर्छित देख कर फिर लात मार कर जाम्बवान प्रभु राम- चन्द्रजी के पास गये।रानि हुई जान कर सारथी ने रथ में उसे डाल कर तब उपाय किया अर्थात् बेहोशी दशा में लक्षा को ले गया ॥२४॥ दो०-मुरछा बिगत भालु कपि, सब आये प्रभु पास । 'निलियर सकल रावनहि, घेरि रहे अति-त्रास ॥८॥ मूर्खा रहित होकर सब भालू और चन्दर प्रभु रामचन्द्र के पास आये, उधर सम्पूर्ण राक्षस नत्यन्त भय से रावण को घेरे हुए हैं (पह बेहोश पड़ा है) ॥8॥ चौo-तेही निसि सीता पहिजाई । त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई ॥ सिर शुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी । सीता उर अइ त्रास घनेरी ॥१॥ उसी रात्रि में सीताजी के पास जा कर निजटा ने सब कथो कह सुनाई । शत्रु के सिर और भुजाओं को बाढ़ सुनते ही सीताजी के हृदय में बड़ी बास हुई ॥१॥ मुख मलील उपजी सन चिन्ता । त्रिजटा सन बाली त सीता होइहि काह कहसि किन माता । केहि बिधि मरिहि चिस्व-दुख-दाता॥२॥ उनका मुख मलिन हो गया, मन में चिन्ता उत्पन्न हुई, तब सीताजी विजरी से कहने लगी । हे माता ! क्या होगा १ कहतो क्यों नहीं ? यह ब्रह्माण्ड को दुम देनेवाला (रावण) किस प्रकार मरेगा ॥२॥ इष्ट वस्तु की अप्राप्ति और अनिष्ट की वृद्धि ले चिन्ता, दैन्य, विषाद सम्बारीभाव तथा सिर वाहु कटने पर भी मृत्यु न होने से नाश्चर्या स्थायीभाव का उदय है। रघुपति-सर सिर कटेहु न मरई । बिधि बिमरीन चरित सब करई ॥ मोर अभाग्य जिआवत ओही। जेहि है हरि-पद-कमल बिछोही ॥३॥ रघुनाथजी के बाणों से सिर कटने पर भी नहीं मरता है, तब प्रतिकूल हुआ विधाता .यह सब चरित करता है। मेरा दुर्भाग्य उसको जिलाता है जिसने मुझे भगवान के चरण कमल से वियोगिनी बनाया है ॥३॥ जेहि कृत कपट कनक-मृग-शूठा । अजहुँ से दैव भोहि पर रूठा । जेहि विधि मोहि दुख दुसह सहाये । लछिमन कहँ कटु-बचन कहाये ॥४॥ जिसने छल से भूा सोने का हरिण बनाया, अब भी वही विधाता मुझ पर रूठा है। जिल मामा ने मुझे असहनीय दुःख सहाया और लक्ष्मण को कड़ा यात कहलाया ॥२॥ रघुपति बिरह सबिष सर भारी । तकि तकि मार बार . बहु मारी ॥ ऐसेहुं दुख जोराखु मम माना । सोइ बिधि ताहि जिआव न आना ॥५॥ रघुनाथजी के विरह रूपी बड़े विषैले बाणों से कामदेव बहुत बार मुझे ताक तक कर i