पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०४४

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पष्ठ होपान, लड्डाकाण्ड । माया बिगत कपि भालु हरणे, बिटप गिरि हि सच फिरे । सर निकर छाड़े राम राबन, बाहु-सिर पुनि महि गिरे । श्रीराम रावन समर-चरित अनेक कल्प जो गावहीं । सत सेष सारद निगम कलि तेज, तदपि पार न पावहीं ॥२८॥ माया दुर होने पर वानर भालू प्रसन्न हुए, वे सब वृत और पहाड़ ले ले कर लौटे। रामचन्द्रजी ने अपरिमित बाण छोड़े, फिर रावण के वाहु और लिर कट कर धरती पर गिरे । . श्रीराम-रावण के युद्ध चरित्र को भनेक कल्प पर्यन्त जो सैकड़ों शेष, शारदा वेद और कवि गाते रहे तो भी पार नहीं पा सकते ॥२८॥ शेप, सरस्वती आदि को कथन के अयोग्य ठहराकर समावरित की अतिशय अगाधता सूचित करना सम्पन्धातधियोक्ति अलंकार' है। दो-ताके गुल गन कछु कहे, जड़-मति तुलसीदास । निजलपीरुप अनुसार जिमि, माछी उड़इ अकास ॥ उन (रामचन्द्रजी) के गुण-गण को मूर्ख बुद्धि तुलसी दास ने कुछ कहा है। जैसे अपने पुरुषार्थ के अनुसार मक्खी आकाश में उड़ती है। इस दोहे में पायापति की ध्वनि है कि जिस श्रानाश का अन्त गरुड़ नहीं लगा सकते, उसके आगे छोटी सी माली क्या चीज़ है ? समा की प्रति में 'मलक उड़ाहिँ प्रकास पाठ है। कांटे सिर भुज बार बहु, परत न पट लङ्केस। प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि, व्याकुल देखि कलेस ॥१०॥ बहुत बार सिरार भुजाए काटने पर वीर लङ्केश्वर मरता नहीं है। प्रभु रामचन्द्रजी बेख कर रहे हैं, पर उसे देखकर देवता सिद्ध और मुनियों को घबराहट रही है।॥ १० ॥ चौ०-काटत बढ़हिँ सील समुदाई । जिनि प्रति लाभ लोभ अधिकाई। मरइन रिपु सम भयउ बिसेखा । रामजिभोपन तन तब देखा ॥१॥ 'काटने पर सिरों के समूह बढ़ रहे हैं, वे ऐसे बढ़ते हैं जैसे लाभ के अपर लोभ की अधिकता होती जाती है । बड़ा परिश्रम हुआ और शत्रु भरसा नहीं, तब येमचन्द्र जी ने विभी- पण की ओर देखा (शि जब सिर काटने पर नहीं मरता तब वह कैसे मरेगा.१) ॥१॥ उमा काल मरु जा.की ईछा । सो प्रभु जन कर प्रीति परीक्षा ॥ सुनु सर्बज्ञ. सुरमुनिसुखदायक ॥३॥ चराचर. नायका प्रनतपाल शिवजी कहते हैं- हे पापती! जिनकी इच्छा से काल मरता है, वे प्रभु रामचन्द्रजी अपने दास के प्रीति की परीक्षा करते हैं। विभीषण ने कहा-हे सर्वश, चराचर के स्वामी, मारणागों के रक्षक, देवता और मुनियों को सुख देनेवाले महाराज ! सुनिए--॥२॥ १२२