पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

९७० 1 रामचरित-सालस। नामिकुंड पियूष बस याके । नाथ जियत रावन बल साके । सुनत विलीपन बचन कृपाला । हरषि गहे कर यान कराला ॥३॥ हे नाथ ! इसके नाभिकुण्ड में अमृत निवास करता है, रावण उसी के बल से जीता है। कपालु रामचन्द्रजी विभीषण के वचन सुनते ही प्रसन्न हो विकराल घाण हाथ में लिये ॥३॥ सभा की प्रति में 'नाभीकुण्ड सुधा बस थाके' पाठ है। असम होन लागे तब नाना । रोवहिँ बहु सृगाल-खर-स्वाना ॥ बालहि खग जग-आरति-हेतू । प्रगट भये ना जहँ तहँ केतू ॥४॥ तब अनेक प्रकार के असगुन होने लगे, बहुत से सियार गदहे और कुत्ते रोते हैं। जगत के लोश के कारण (स्वरूप) पक्षी बोलवे हैं. प्रकाश में जहाँ तहाँ पुच्छल तारे प्रकट हुए ॥४॥ सभा की प्रति में 'असगुन होन लगे तथ नाना पाठ है। दस-दिसि दाह होन अति लागा । अयउ परब बिनु रबि उपरागा ॥ मन्दोदार उर कम्पत्ति भारी । प्रतिमा सवहिँ नयन-मग-बारी ५॥ पों दिशाओं में पड़ी जलन होने लगी, बिना अवसर के सूर्य-ग्रहणं हुआ। मन्दोदरी का हृदय बड़े जोर से काँपने लगा, मूर्तियाँ आँखों के रास्ते जल बहाती हैं ॥५॥ हरिगीतिका-छन्द । प्रतिमा रुदहि पचिपात नभ अति-पात बह डोलति मही। बरहि बलाहक रुधिर कच रज, असुभ अति सक को कही। उत्तपात अमित बिलोकि नम सुर, बिकल बोलहिँ जय जये। सुर सलय जानि कृपाल रघुपति; चाप सर जोरत भये ॥२६॥ प्रतिमाएँ होती है, श्राकाश से वनपात हो रहा है, हवा ज़ोर से बहती और धरती डगमग हो रही है । बादल रक्क, बाल और धूल बरसते हैं, अत्यन्त अमङ्गलो को कौन कह सकता है १ अनन्त उत्पान देख कर व्याकुल हो आकाश से देवता जय जय बोल रहे हैं। देवताओं को भयभीत जान कर कपाल रघुनाथजी ने धनुष पर वाण जोड़े ॥ २६ ॥ दो-बँचि सरासन लवन लगि, छोड़े सर एकत्तीस । रघुनायक-सायक चले, मानहुँ काल फनीस ११०२॥ कान पर्यन्त धनुष को खींच कर इकतील घाण छोड़े। रघुनाथजी के घाण चले, वे ऐसे भाजूम होते हैं मान काल रूपी लप हो ॥ १०२ ॥ चौ० लायक एक नाभि सर सोखा। अपर लगे सिर भुज करि रोखा॥ लै सिर बाहु चले नाराचा । सिर-भुज हीन एंड महि नाचा ॥१॥ एक बाप ने नामिसर को सुना दिया और तीस बाण एक एक भुजा-सिर में खिसिया