पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०४६

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पष्ट सोपान, लङ्काकायद। ९७१ कर लगे । वे वाण सिर और बाहुओं को ले कर चले शिना सिर-भुजा के धड़ पृथ्वी पर नाचने लगा ॥१॥ घरनि धसई घर शव प्रचंडा । तम सर हति प्रभु त दुइ खंडा॥ गर्जेउ भरत और एक मारी। कहाँ राम रन हतउँ प्रचारी ॥२॥ बड़े पेग से धड़ दौड़ती है जिसले धरती धसती जा रही है, तब प्रभु रामचन्द्रजी ने वाण से काट कर दो टुकड़े कर दिया। मरती वेर बड़ी भीषण अावाज से गर्जा और कहा कि राम कहाँ है ? मैं ललकार पर उन्हें संग्राम में मारूंगा ॥२॥ यही अन्त समय में रावण ने 'राम' कहा, नहीं तो तपस्वी रोजकुमार आदि के सिवाय राम कभी नहीं कहा। रामचरितमानस के मतानुसार इसका निर्वाह इसी प्रकार हुआ है। डोला भूमि गिरत दसकन्धर । छुमित सिन्धु सरि दिग्गज भूधर ॥ धरनि परेउ देउ खंड बढ़ाई। चापि भालु-मर्कट-समुदाई ॥३॥ रावण के गिरते धरती हिल गई, समुद्र, नदियाँ, दिशाओं के हाथी और पर्वत अधोर हो उठे। धड़ के दोनों टुकड़ों को बढ़ा कर उससे भालू और बन्दसें के समूह की दशाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ो॥३॥ 'मन्दोदरि आगे सुज सीसा । धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥ प्रबिसे सब निषा महँ जाई । देखि सुरन्ह हुन्टुनी बजाई ॥४॥ भुजा और सिरों फो मन्दोदरी के सामने रख कर वाण वहाँ चले जहाँ जगदीश्वर राम- चन्द्रजी थे। सब जा कर तरकस में पैठ गये, यह देख कर देवताओं ने नगारे वजारे ॥४॥ तासु तेज समान प्रक्षु आनन । हरणे देखि सम्हु चतुरानन ॥ . जय जय धुनि पूरी ब्रांडा । जय रघुबीर प्रबल-भुजदंडा ॥५॥ उसका तेज प्रभु के मुख में समा गया, यह देख कर शिव और ब्रह्मा प्रल हुए । जय जयकार की ध्वनि प्रमाण्ड में भर गई, बड़े जोरावर भुजदण्डवाले रघुवीर की जय हो (सय जगह से लोग पुकार रहे हैं) ॥ ५ ॥ घरपहिँ सुमन देव-सुनि-बुन्दा । जय कृपाल जय जयति सुकुन्दा॥६॥ देवता और मुनियों का समुदाय फूलों की वर्षा कर के कृपालु मुक्ति देनेवाले भगवान की जय हो, जय हो, जय हो.(पुकार रहे हैं ) ॥६॥ कपाल' और 'मुकुन्द' संज्ञाएँ साभिप्राय है, क्योकि कपाल ही शत्रु पर दया कर सकता है और मुकुन्द । मुक्ति देनेवाला ) ही मोक्ष दान करने में समर्थ हो सकता है ? पह 'परिकराकर अलंकार' है। हरिगीतिका-छन्द। जय कृपा-कन्द मुकुन्द द्वन्द-हरन सरन-सुख-प्रद प्रभो। खल-दल-बिदारन परम कारन, कारुनीक सदा विमो॥