पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०४७

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९७२ ! रामचरित मानस । सुर सुमन व्यरषहिँ हरप सहुल, बाज दुन्दुभि गहगही। सलाम-अङ्गन राम अङ्ग अनङ्ग बहु सोभा लही ॥३०॥ कपा के सेध, मोक्षदाता, कलह को दूर करनेवान्ते, शरणार्थियों को आनन्द दायक और सब के स्वामी, श्राप की जय हो। श्राप दुष्टों के समूह को विदीर्ण करने में उत्कृष्ट कारणरूप सदा करुणा करनेवाले और समर्थ हैं। प्रानन्द में भर कर देवता फूल बरसाते हैं और गहरे हमारे बज रहे हैं । रणभूमि में विराजमान रामचन्द्रजी के अली में असंख्यों कामदेव की शोभा प्राप्त हुई है ॥ ३०॥ सिर . जटा-सुकुट प्रसून मिच विच, अति मनोहर राजहीं। जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल, समेत उडुगन भाजही । भुजदंड सर कोदंड फेरत, रुधिर कन तन अति बने । जनु रायसुनी तमाल पर बैठी बिपुल सुख आपने ॥३१॥ सिर पर जटाओं के मुकुट के बीच बीच फूल अत्यन्त सुन्दर शोभायमान हो रहे हैं। ऐसा मालूम होता है मानों नील पर्वत पर विजलियों की पंक्ति तारागण के सहित सुहावनी रगती हो। हाथ से धनुष बाण फेरते.हैं, शरीर पर रक की बूंद अतिशय शोमित हैं। वे ऐसी मालूम होती है मानो तमाल वृक्ष पर बहुत सी रयमुनियों चिड़िया अपनी इच्छा. नुसार श्रानन्द से बैठी हो ॥३१॥ जटा के बालों की नोक और बिजली, सफेद फूल और तारागण, रामचन्द्रजी का श्याम- तनु और नीला पहाड़ परस्पर उपमेय उपमान हैं 'अनुक्त विपया वस्तूतप्रेक्षा अलंकार' है। रक के छोटे और लाल पक्षी रामचन्द्रजी का श्याम शरीर और तमाल वृक्ष परस्पर उपमेय उपमान हैं । चिड़िया मुख से अक्ष पर बैठती ही हैं, यह 'उक्तविषया वस्त्त्प्रेक्षा अलंकार है। दो-कृपा दृष्टि करि बृष्टि प्रभु, अभय किये सुरबन्द । भालु कीस सब हरणे, जय सुखधाम मुकुन्द ॥१०३॥ प्रभु रामचन्द्रजी ने कृपा-दृष्टि की वर्षा करके देवताओं को निर्भय किया, सब मालू और बन्दर प्रसन्न होकर मुख के स्थान मुकुन्द भगवान का जय जयकार करते हैं ॥१०॥ to-पति सिर देखत मन्दोदरी । मुरछित बिकल धरनि खसि परी। जुबतिकुन्द रोवत उठिधाई । तेहि उठाइ रावन पहिं आई ॥१॥ पति का सिर देखते ही मन्दोरी व्याकुलता से मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। ड की सुड स्त्रियाँ रोती हुई उठ कर दौड़ी और उसको उठा कर रावण की लाश के पास ले भाई ॥१॥