पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०४९

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९७४ रामचरित मानस । हरिगीतिका छन्द । जानेउ मलुज करि दनुज-कानन, दहन-पावक हरि स्वयं । जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुरु पिय, मजेहु नहिँ करुनामयं ॥ आजन्म त परद्रेह-रस पापौघमय तव तनु अयं । तुम्हहूँ दियो निज थाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं ॥३२॥ हे प्यारे ! राक्षस रूपी धन को जलानेवाले अग्नि रूपस्वयम् भगवान को आपने मनुष्य करके समझा। जिनको शिवजी और ब्रह्मा श्रादि देवता नमस्कार करते हैं, उन दया के रूप ईश्वर का आपने भजन नहीं किया जन्म से मरण पर्यन्त श्राप का यह शरीर पाप की राशि- का रूप ही था क्योंकि सदा पराये के द्रोह में तत्पर रहे । तुम्हे भी रामचन्द्रजी ने अपना लोक दिया, ऐसे निर्विकार ब्रह्म को मैं प्रणाम करती हूँ ॥३२॥ दो०-अहह नाथ रघुनाथ सम, कृपासिन्धु नहि आन । जोगि-वृन्द दुर्लभ गति, तोहि दीन्हि भगवान ॥१०॥ हे नाथ ! शोक है कि रघुनाथजी के समान रुपासागर दुसरा कोई नहीं है, भगवान राम.. चन्द्रजी ने तुम्हें यह गति दी जो योगीजनों को दुर्लभ है (देले उदार और दयालु स्वामी से तुमने वैर किया ) ॥१०॥ चौ-मन्दोदरी बचन सुनि काना । सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना । अज महेस नारद सनकादी । जे मुनिबर परमारथ-बादी ॥१॥ मन्दोदरी की बात कान से सुन कर देवता, मुनि और सिद्धसभी ने सुख माना । ब्रह्मा, शिक, नारद और सनकादिक मुनिश्रेष्ठ जो परमार्थ के वका हैं ॥१॥ भरि लोचत रघुपतिहि निहारा । प्रेम-मगन संथ भये सुखारी रुदन करत देखी सब नारी । गयेउ बिभीषन मन दुख भारी ॥२॥ रघुनाथजी को आँख भर देख सब प्रेम में मग्न हो कर आनन्दित हुए । समस्त स्त्रियों को रोदन करते देख कर विभीषण के मन में बड़ा दुःख हुआ, वे वहाँ गये ॥ २॥ बन्धु दसा बिलोकि दुख कीन्हा । तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा॥ लछिमन तेहि बहुविधि समुझायो। बहुरि बिभीषन प्रभु पहि आयो॥३॥ भाई की दशा देख कर दुःख प्रकट किया, तब प्रभु ने छोटे भाई को (समझाने के लिये) आक्षा दी। लक्ष्मणजी ने उनको बहुत तरह समझाया, फिर विभीषण रामचन्द्रजी के पास प्राये॥३॥