पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

षष्ठ लापान, जब्बाकाण्ड । सभा की प्रति मैं "बन्धु इसा देखत दुरा कीन्हा । राम अनुज कहूँ श्रायुस दीन्हा॥ लछिमन जाइ ताहि ससमुझाय: । वहुरि विभीषन प्रभुपहिँ श्रायउ" पाठ है। कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका । करहु क्रिया परिहरि सब सोका ॥ कीन्हि क्रिया प्राय मानी। विधिवत देस काल जिय जानी ॥४॥ प्रभु रामचन्द्रजी ने पाटि से विभीषण को देख कर कहो कि लय शोक त्याग कर अन्त्येष्टि क्रिया करो। स्वामी की आशा मान उन्होंने देश काल को सन में लमस कर क्रियाकर्म किया ॥ दो-मन्दोदरी आदि सब, देहि तिलाञ्जलि ताहि । भवन गई स्पति गुन, गन बरनत लन माहि ॥१०॥ मन्दोदरी नादि सब रानियाँ रावण को तिलाजलि दे कर मन में रघुनाथजी का गुण गण वर्णन करते हुए घर गई ॥१०॥ चौ०-आइ बिभीषन पुनि सिर नाया। कृपासिन्धु तब अनुज बोलायो॥ कपील अङ्गद नल नीला । जामवन्त मारुति नयसीला ॥१॥ फिर विभीषण ने पाकर सिर नवाया, तब दयासागर रामचन्द्रजी ने छोटे भाई को बुला कर कहा--तुम, सुग्रीव, अर, नल, नील, जास्ववान भोर पवन कुमार आदि नीतिल-॥१॥ सब मिलि जाहु धिमीपन साथा । सारेहु तिलक कहेहु रघुनाथा ॥ पिता बचन म नगर न आवउँ । आपु सरिख कपि अनुज पठाउँ॥२॥ ग्घुनाथजी ने कहा- सब मिल कर विभीषण के साथ जानो और इन्हें राजतिलफ फरो। फिर विभीषण से कहने लगे-मैं पिता की प्राक्षानुसार नगर में प्रवेश न करूंगा, अपने समान ही बन्दर और लघुबन्धु लक्ष्मण को भेजता हूँ ॥२॥ तुरत चलें कपि सुनि मनु बचना । कीन्ही जाइ तिलक के रचना । ' सादर सिंहासन बैठारी । तिलक सारि अस्तुति अनुसारी ॥३॥ प्रभु रामचन्द्रजी की आज्ञा सुन कर तुरन्त बन्दर चले, वहाँ जा कर राजतिलक की तैयारी की आदरपूर्वक राजसिंहासन पर बैठा कर तिलक किया और स्तुति करने लगे ॥३॥ जोरि पानि सनही सिर नाये । सहित बिभीषन मा पहिँ आये ॥ तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे । कहि प्रिय बचन सुखी सच कीन्हे ॥४॥ 1 हाथ जोड़ कर सभी ने सिर नवाये और विभीषण के सहित प्रभु रामचन्द्रजी के पास आये। तब रघुनाथजी ने वन्दरों को बुला लिया और प्रिय वचन कह कर सब को सन्तुष्ट . किया ॥en