पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०५१

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७६ रामचरितमानस हरिगीतिका-छन्द। किय सुखी कहि बानी सुधा सम, बल तुम्हारे रिपु हयो। पायो विधीपन राज तिहुँपुर, जस तुम्हारो नित नयो । मोहि लहित तुल-कीरति तुम्हारी, परम-प्रीतिं जे गाइहै। संसार-सिन्धु अपार पार प्रयास, बिनु नर पाइहैं ॥३३॥ अमृत के समान मीठी वाणी कह कह कर सब को सुखी किया कि तुम्हारे ही बल से शत्रु मारा गया। विभीषण ने राज्य पाया, तुम्हारा यश तीनों लोकों में सदा नया बना रहेगा। मेरे सहित तुम्हारी शुभ-कीर्ति जो अत्यन्त प्रीति से गावेंगे वे मनुष्य बिना परिश्रम अपार भव- सागर से पार पागे ॥३३॥ दो प्रभु के बचन खवन सुनि, नहिँ अघाहिँ कपि-पुञ्ज । बार बार सिर नावहीं, गहहिँ सकल पद-कज ॥१६॥ प्रभु रामचन्द्रजी के वचन कान से सुन कर वानर-वृन्द तृप्त नहीं होते हैं। बार बार चरण-फसलों को पकड़ कर सिर गवाते हैं ॥१०६॥ शोध-पुनि प्रभु बोलिलियेहनुपाना । लङ्का जाहु कहेउ भगवाना ॥ समाचार जानकिहि सुनावहु । तासुकुसल लेइ तुम्ह चलि आवहु ॥१॥ फिर प्रभु ने हनूमानजी को बुला लिया और भगवान ने कहा तुम लङ्का में जाओ। जानकी को समाचार सुनावो और उनका कुशल वृत्तान्त ले कर चले पाओ ॥१॥ तब हनुमन्त नगर महँ आये । सुनि निसिचरी निसाचर धाये ॥ बहु प्रकार सिन्ह पूजा कोन्ही । जनक-सुता दिखाइ पुनि दीन्ही ॥२॥ तब हनूमानजी लङ्का नगर में श्राये, उनका भाना सुन कर गली-राक्षस दौड़े। बहुत तरह से उन्हों ने पवनकुमार की पूजा की, फिर जनकनन्दनी को दिखा दिया ॥२॥ दूरिहि तैं मनाम कपि कीन्हा । रघुपति-दूत जानकी चीन्हा । कहहु तात प्रभु कृपा-निकेता । कुसल अनुज-क कपि-सेन-समेता ॥३॥ हनुमानजी ने दूर ही ले प्रणाम किया, जानकीजी ने पहचान लिया कि यह वही रघु: नाथजी का दूत है। वे बोली-हे तात ! कहो, कृपानिधान स्वामी छोटे भाई और वानरी, सेना के लहित कुशल से हैं ? ॥३॥ सब विधि कुसल कोसलाधीसा । मातुः समर जीतेउ दससोसा ॥. अबिचल राज बिभीषन पायो । सुनि कपि बचन हरष उर छायो ॥४॥ हनुमानजी ने कहा-हे माता कौशलाधीस स्वामी सब प्रकार 'कुशल पूर्वक हैं और संग्राम में रावण को जीत लिया। विभीषण अंटल राज्य पा गये, हनुमानजी के वचन सुन कर जानकीजी के हदय में प्रसन्नता छा गई ॥४॥ ।