पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०५३

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सनेही ॥४॥ रामचरित मानस । बहु प्रकार भ्रूणन पहिराये । सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याये। तापर हरषि चढ़ी. बैदेही । सुमिरि राम-सुख धाम बहुत तरह के आभूषण पहिराये, फिर सुन्दर पालकी लजा कर ले आये। सुख के स्थान स्नेही रामचन्द्रजी का स्मरण कर के प्रसन्न हो जानकीजी उस पर चढ़ी ॥४॥ बेतपानि-रच्छक । बहुँ पासा । चले सकल मन पश्म-हुलासा ॥ देखन भालु कीस सब आये। रच्छक कोपि निवारन धाये ॥५॥ देत की छड़ी हाथ में लिये चारों ओर रक्षक-गण- बड़े उत्साह से चले। सीताजी को देखने के लिये सब भालू और बानर श्राये, रक्षक क्रोध कर उन्हें हटाने को दौड़े ॥५॥ कह रघुबीर 'कहा लम मानहु । सीतहि सखा पयादे. आनहु । देखहि कपि जननी की नाई । बिहँसि कहा रघुनाथ गोसाँई ॥६॥ रघुनाथजी ने कहा-हे मित्र विभीषण ! मेरा कहना मान कर सीता को पैदल ले आमी जिसमें बन्दर उन्हें माता की तरह देखें, स्वामी रामचन्द्रजी ने हँस कर ऐसा कहा ॥६॥ लुनि प्रभु बचन भालु कपि हरर्थे । नभ त सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥ सीता प्रथल अनल मह राखी । प्रगट कीन्ह चह अन्तर-साखी ॥७॥ प्रभु रामचन्द्रजी के वचन सुन कर भालू और चन्दर प्रसन्न हुए देवताओं ने आकाश से . बहुत फूल बरसाये। पहले अग्नि में रक्खी मुई सीताजी को साक्षी (कसम लेने) के बहाने. प्रकट .. करना चाहते हैं ॥७॥ साक्षी के बहाने भौर की और बात कहना 'कैतवापझुति अलंकार है। दो-तेहि कारन करुना निधि, केहे कछुक दुर्बाद । सुनत जातुधानी सब, लागी. करन बिषाद ॥१०॥ इस कारण क्यानिधान रामचन्द्रजी ने कुछ दुर्घचन कहे । सुनते ही सब राक्षसियाँ विषाद करने लगीं ॥१०॥ राक्षसियों को विशेष दुल इसलिये हुआ कि जानकीजी के विशुद्ध भाचरण और पति प्रेम को के निरस्तर आँखो देख चुकी हैं । चौ. -प्रभु के बचन खीस धरि सीता। बोली मन-क्रम-बचन-पुनीता ॥ लछिमन होहु धरम कै नेगी पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी ॥१॥ स्वामी की आशा शिरोधार्य कर के मन, कर्म और वचन से पवित्र सीताजी रोली। हे.लक्ष्मण! तुम इस धर्म के भागी होकर जल्दी अग्नि प्रकट करो ॥१॥ सुनि लछिमन सीता के बानी। बिरह-बियक-धरम-नति-सानी ।। लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ ॥२॥ इस सरह वियोग, विचार, धर्म और नम्रता भरी सीताजी की वाणा को सुन कर