पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०५९

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रामचरित मानस । दो०-अनुज-जानकी-सहित अन, कुसल कोसलाधीस । खोला देखि हरषि मन, अस्तुति कर सुर-ईस ॥१२॥ छोटे भाई लक्ष्मण और जानकीजीके सहित कोशलनाथ प्रभु रामचन्द्रजीको श्रेष्ठ शोभा को देख कर मन में प्रसन्न हो देवताओं के मालिक (इन्द्र) स्तुति करने लगे ॥११२॥ तोमर-छन्द । जय राम सामा-धाम । दायक प्रनत बिस्राम । धृत बोल बर सर चाप । भुजदंड प्रबल प्रताप reu हे शोभा के धाम रामचन्द्रजी शरणागतों को विनाम देनेवाले, आप की जय हो। आप धनुष, पाण नौर श्रेष्ठ तरकस धारण किये हुए हैं, आप के भुजदण्डों के बल की बड़ी महिमा है 180 जय दूपनारि खरारि । मर्दन-निसाचर-धारि । यह दुष्ट मारेउ नाथ । अये देव सकल सनाथ ॥१०॥ हे दूषण और खर के वैरी ! राक्षसों की सेना के नाशक, श्राप की जय हो । हे नाथ ! आपने पल दुस्ट (रावण) को मारा जिससे सम्पूर्ण देवता सपक्ष हुए ॥१०॥ धरनी भाए । महिमा उदार अपार। जय रावनारि कृपाल । किय जातुधान बिहोल ॥११॥ श्राप धरती के बोझ को हरनेवाले और बहुत बड़ी श्रेष्ठ महिमावाले हैं, आप की जय हो। हे कृपालु रावण के वैरी! आपने राक्षसों को चेष्टा हीन कर दिया, आप की जय हो ॥१९॥ अति बल · गबं । किय बस्य मुनि सिद्ध खग नर नाग । हठि पन्ध सबके लाग ॥१२॥ लकेश्वर को भरने बल का बड़ा धमण्ड था, उसने देवता और गन्धा को वश में कर लिया । मुनि, सिद्ध, पक्षी, मनुष्य और नाग श्रादि सभी के रास्ते हठ से लग गया था ॥१२॥ पर-द्रोह-रत्त अति दुष्ट । पायो सो फल पापिष्ट । अब दीनदयाल । राजीव-नयन-बिसाल ॥१३॥ पराये के द्रोह में तत्पर महाखलं पापी (रावण) ने वैसा फल पाया। हे दीनदयाल विशाल कमल के समान नेनवाले महाराज ! अब (मेरी विनती) सुनिए ॥१३॥ मोहि रहा अति अभिमान । नहिँ कोउ मोहि समान । अब देखि प्रभु-पद-कज गत मान-प्रद-दुख-पुज ॥१४॥ मुझे बड़ा अभिमान था कि मेरे समान कोई नहीं है। अब स्वामी के चरण-कमलों को देख कर वह समूह दुःख प्रदान करनेवाला अभिमान जाता रहा ॥ १४ ॥ सुर गन्धर्व।