पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०६

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प्रथम सोपान, बालकाण्डं । 4 सुभग कबिता सरिता सी। राम बिमल जस जल भरिता सो ॥ सरजू नाम सुमङ्गल मूलां । लोक बेद मत मज्जुल कूला ॥६। सुन्दर कविता नदी के समान बह चली जिसमें रामचन्द्रजी का निर्मल यश जल के समान भरा है। जिसका सरयू नाम है वह श्रेष्ठ मंगलों की जड़ है, लोक-मत और वेद-मत इसके दोनों रमणीय किनारे हैं ॥६॥ नदी पुनीत सुमानस नन्दिनि । कलिमल त्रिन तरु मूल निकन्दिनिशा पवित्र (सरयू नदी सुन्दर मानसरोवर की कन्या, जो कलि के पाप रूपी तृण और वृत को निर्मूल करनेवाली है ॥७॥ जब नदियां बढ़ती है तब किनारे के घास, पेड़ श्रादि को जड़ से ढाह कर बहाती हैं, उसी तरह कविता रूपी सरयू नदो कलिमल रूपी तृण तरु को निमुल करती है। दो०-स्रोता त्रिविधि समाज पुर, ग्राम नगर दुहुँ कूल । सन्त सभा अनुपम अवध, सकल सुमङ्गल मूल ॥ ३ ॥ तीनों प्रकार के श्रोताओं के समुदाय दोनों किनारे के पुर, गाँव और नगर हैं। सम्पूर्ण श्रेष्ठ मंगलों की जड़ सन्त-मण्डली अयोध्यापुरी है ॥३६॥ सरयू नदी के दोनों किनारे पर बहुत सी पुरहाई, गाँव, नगर और अयोध्यापुरी बसी है। कविता नदी के तीन प्रकार (विषयी, साधक, सिद्ध, अथवा पात, अर्थार्थी, जिशानु) श्रोता. गण पुर, गाँच, नगर हैं और सन्त-समाज अपूर्व अयोध्या है। चौ०-रामभगति सुरसरितहि जाई । मिली सुकीरति सरजु सुहाई ॥ सानुज राम समर जस पावन । मिलेउ महानद सान सुहावन ॥१॥ यह सुन्दर कीनि कविता रूपी सुहावनी सरयू नदी जाकर रामभक्ति रूपी गंगा में मिली है। छोटे भाई लक्ष्मण के सहित रामचन्द्रजी का पवित्र शोभायमान युद्ध यश रूपी महानद सोनभद्र उसमें आ मिला है।५॥ जुग घिच भगति देव धुनि धारा । सोहति सहित सुधिरति बिचारा॥ त्रिविधि ताप त्रासक तिमुहानी । राम सरूप सिन्धु समुहानी ॥२॥ (सरयू और सोनभद्र। दोनों के बीच में भक्ति रूपी देवनदी की धारा ऐसी मालूम होती है मानों वह सुन्दर वैराग्य और ज्ञान के सहित सोहती हो । यह तिमुहानी (तीनों नदियों का संगम) तीन तापों को भयभीत करनेवाली है और रामचन्द्रजी के स्वरूप रूपी सागर के सामने मिलने को जा रही है ॥२॥. मानस-मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन-मन पावन करिही ॥ बिच बिच कथा विचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा ॥३॥ कविता रूपी सरयनदी को जड़ रामचरितमानस है और वह ( कवितानदी ) रामभक्ति सपी गङ्गानवी में मिली है, जो सुनने से सज्जनों के मन को पवित्र करेगी। बीच बीच में भिन्न भिन्न अनोखी कथाएँ मानों नदी के किनारे किनारे के वन और बाग हैं ॥ ३ ॥