पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०६१

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E रामचरित-मानस शय से भरी) है, इसको शानी मुनि जानते हैं। प्रभु तीनों लोकों कोमार और जिला सकते हैं, यहाँ केपल इन्द्र को बड़ाई दो है ॥२॥ पहले भुशुण्डी ने कहा कि इन्द्र से रामचन्द्रजी कहते है मेरे धन्दर-भालुओं को जीवित कर दो। फिर अपनी ही प्रथम कही हुई बात पर यह कह कर आक्षेप करते हैं कि प्रभु त्रिलोकी को मारने और जिला देने में समर्थ है, केवल इन्द्र को बढ़प्पन दिया 'उकामशेष अलंकार है। सुधा बरषि कपि भालु जिआये । हरपि उठे सब प्रभु पहिँ आये ॥ सुधा-बुष्टि भइ दुहुँ दल ऊपर । जिये भालु-कपि नहि रजनीचर ॥३॥ इन्द्र ने अमृत की वर्षा कर के अन्दर-भालुओं को जिला दिया, वे लय प्रसन्न होकर उठे और प्रभु रामचन्द्रजी के पास आये । अमृत वर्षा दोनों दल पर हुई; किन्तु भालू यन्दर तो जी गये और राक्षस महां जिये ॥३॥ एक ही वस्तु अमृत वर्षा से विपरीत कार्य प्रकट न कि एक जिये दूसरे नहीं 'प्रथम व्याघात अलंकार' है। ऐसा क्यों हुआ? इसका उत्तर कागभुशुण्डजी स्वयम् देते हैं। 'दल' शब्द में अर्थशशरण ले केवल 'सेना' अभिधा है। रालाकार अये तिन्ह के मन । मुक्त भये छूट भव-बन्धन ॥ सुर-अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिये सकल रघुपति को ईछा ॥४॥ उन राक्षसों के मन रामचन्द्रजी में मिलकर तप हो गये, इसलिये वे संसारी-बन्धन छूट कर मोक्ष पा गये। बन्दर और भालू सब देवताओं के अंश से उत्पन्न हैं, रघुनाथजो की इच्छा से चे समस्त योद्धा जी गये ॥en 'हरि इच्छा भावी बलवाना' रघुनाथजी की इच्छा ही अटल होनहार है। राम सरिस को दीन-हितकारो । कीन्हे मुक्त निसाचर-झारी ।। खल भल-धाम काम-रत रावन । गति पाई जो मुनिबर पाव न ॥५॥ रामचन्द्रजी के समान दीन हितकारी कौन है ? जिन्होंने सम्पूर्ण राक्षसों को मुक्त कर दिया। दुष्ट, पाप का घर, कामासक्त रावण ने यह गति पाई जो अच्छे अच्छे मुनि नहीं पाते An दो-खुलन भरपि सब सुर चले, चढ़ि चढ़ि रुधिर विमान ।' देखि सुअवसर राम पहि, आये सुजान ॥ फूलों की वर्षा कर के सब देवता सुन्दर विमानों पर चढ़ चढ़ कर चले । अच्छा समय देख सुजान शिवजी रामचन्द्रजी के पास आये। परम-प्रीति कर जोरि जुग, नलिन-जयन भरि बारि। पुलकित-तनु गदगद गिरा, बिनय करत त्रिपुरारि ॥११४॥ अत्यन्त प्रेम से दोनों हाथ जोड़ कर कमल-नेत्रों में जल भर पुलकित शरीर गद्गद वाणी ले त्रिपुरान्तक भगवान स्तुति करने लगे ॥११॥ .