पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०६२

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९६७ पष्ट सोपान, उकाकाण्ड । डिल्ला-न्द मामभिरक्षय रघुकुल-नायक । धृत जर चाप रुचिर कर सायक ॥ मोह-महा-घन-पटल प्रमजन । संसय-विपिन-अनल-सुर-उजन ॥१॥ हे रघुकुल नायक ! मनोहर हाथों में सुन्दर धनुष-बाण धारण किये हुए मेरी रक्षा कीजिए ! महामहि रूपी बादलों की पंक्ति को तितर बितर करने में श्राप एवन रूप हैं, संशय रूपी धन को जलानेवाले दावानल और देवताओं को प्रसन्न करनेवाले हैं ॥१॥ सगुन 'अगुन गुन-मन्दिर सुन्दर । अम-तम-प्रबल-प्रताप-दिवाकर ॥ काम-क्रोध-मद-गज पञ्चानन । बसहु निरन्तर जन-मान-कानन ॥२॥ आप सगुण निर्गुण और सुन्दर गुणे के स्थान है, भ्रम रूपी अन्धकार के लिए भाप का प्रताप प्रचण्ड सूर्य है। काम, क्रोध और मद रूपी हाथियों के लिये आप सिंह हैं, भकों के मन रूपी जाल में सदा निवास पारनेवाले हैं ॥२॥ विषय-मनोरथ-पुञ्ज कच-अन । प्रबल-तुषार उदार पार-मन॥ भव बोरिधि मन्दर-पर मन्दर । वारय तारय संसृति दुस्तर ॥३॥ विषयों के समूह मनोरथ रूपी फमल धन के लिये आप प्रचण्ड पाला रूप हैं, दानशील और मन से परे है। संसार रूपी समुद्र को मथने के लिये मन्दराचल ले बढ़ कर आप मन्दर रूप हैं, दुस्तर संसार से श्राप (जीव की, छुपानेवाले और) पार उतारनेवाले हैं ॥३॥ स्थाम-गात राजीवबिलोचन । दीलबन्धु प्रनतारति-मोचन । अनुज जानकी सहित निरन्तर । बसहु राम-कृप मम उर अन्तर ॥४॥ ओप श्यामल शरीर, कमल-नेत्र, दोनों के सहायक और शरणागतो के दुःख को दूर करनेवाले हैं। छोटे भाई लक्ष्मण और जानकीजी के सहित हे राजा रामचन्द्रजी ! मेरे हृदय में निवास कीजिए॥॥ मुनि-रजन महिमंडल-मंडन । तुलखिदास-प्रभु त्रास-विखंडन ॥शा हे तुलसीदास के स्वामी ! आप मुनियों को प्रसन्न करनेवाले भूमण्डल के भूषण और भय नाशक हैं ॥५॥ कहाँ त्रेतायुग में शिवजी का स्तुति करना और कहाँ लाशो वर्ष के पीछे कलियुग में गोलाईजी की उत्पति, फिर शिवजी के मुख से तुलसीदास के स्वामी का सम्बोधन दिलाना भयुक्त सा प्रतीत होता है। परन्तु जहाँ कवि लोग भावी अर्थ को प्रत्यक्ष की तरह वर्णन करते हैं, वह माविक अलंकार माना जाता है। यहाँ वही अलंकार है, इसले सन्देह का कोई कारण नहीं है।