पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०६४

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चष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । बीते अवधि जाउँ जाँ, जियत न पावउँ बीर । सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु, पुनि पुनि पुलक सरीर । ॥ यदि करार बीत जाने पर जाऊँगा तो उस वोर को तीता न पाऊँगा । प्रभु रामचन्द्रजी का शरीर छोटे भाई भरत का स्नेह स्मरण करके बार बार पुलकित हो रहा है। करेहु कल्प मरि राज तुम्ह, माहि सुमिरेहु मन माहि । पुनि मम धाम पाइहहु, जहाँ सन्त सब जाहि ॥१९६॥ तुम कल्प पर्यन्त राज्य करना और मन में स्मरण रखना। फिर मेरे उस धाम को पायोगे जहाँ सबसन्त लेग जाते हैं ।।११६॥ -सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपा-धाम के ॥ बानर भालु सकल हरषाने । गहि प्रभु-पट गुन धिमाल मखाने ॥१॥ रामचन्द्रजी के वचनों को सुन कर विभीषण ने प्रसन्नता से दयानिधान के पाँव पकड़ लिये । सम्पूर्ण वानर और माल खानन्दित हो कर प्रभु के चरणों में प्रणाम किया और निर्मल गुण बखान रहे हैं ॥१॥ बहुरि बिभीषन अवन सिघायो । अनि-गन-असन विमान भरायो । लेइ. पुष्पक प्रा आगे राखा । हँखि करि कृपासिन्धु अस माखा॥२॥ फिर विभीषण घर गये और पतले रल एवम् वन विमान में भरनाया। पुष्पक विमान को ले जा कर प्रभु रामचन्द्रजी के सामने रख दिया, उसे देख हल कर कपासिन्धु ने ऐसा चढ़ि विमान सुनु सखा बिभीषन । गगन जाइ बरषहु पर-भूषन ॥ नम पर जाइ बिभीषन तबहीं । बरषि दिये पनि असर सबहीं ॥३॥ हे मित्र विभीषण ! सुनो, विमान पर पढ़ कर आकाश में चने जायो और वस्त्र तथा भाभूषणों की वर्षा भर दी। तुरन्त विभीषण आसमान में जा कर सम्पूर्ण वस्त्रों और मणियों को बरस दिये ३n जोइ जोइ मन मावइ सोइ लेही । मनि मुख मेलि डारि कपि देहौं । हँसे राम श्री-अनुज समेता । परम-कौतु की कृपा-निकेता ॥४॥ जो जो मन में सुझाता है वह लेते हैं, मणियों को मुख में रख कर बन्दर फैश देते हैं। बड़े खेलवाड़ी कृपानिधान रामचन्द्र जी यह ताशा देख कर) छोटे भाई लक्ष्मण और जान- कीजी के सहित हसे ॥४॥ रत्नादि खाने की वस्तु नहीं, उसे खाने के लिए मुखमें डालना द्वितीय असति अलंकार' । और मणि को खाने की चीज़ समझना भ्रान्ति है, दोनों का सन्देहसकर है। कहा॥२॥ ..