पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०६५

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O रामचरित मानस । दो-मुनि जेहि ध्योन नं पावहि, नेति नेति कह बेद। कृपासिन्धु सोइ कपिन्ह सन, करत अनेक बिनोद ॥ मुनि लोग जिनको ध्यान में नहीं पाते और जिन्हें वेद नेति नेति कहते हैं, वे ही कृपासा- गर भगवान बन्दरों के साथ अनेक तरह के खेल कर रहे हैं। उमा जोग जप दान तप, नाना मख नेम। संस-कृपा नहिँ करहि तसि, जसि निस्केवल प्रेमः ॥११॥ शिवजी कहते हैं-हे उमा ! योग, जप, दान, तपस्या, उपवास और नाना प्रकार के नेमो. से रामचन्दजी वैसी छपा नहीं करते जैसी निकेवल (निखालिस) प्रेम से दया करते हैं ॥१७॥ चौ०-भालु कपिन्ह पटभूषन पाये। पहिरि पहिरि रघुपति पहँ आये॥ नाना जिनिस देखि प्रनु कोसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा ॥१॥ भालू और गन्दरों को वस्त्रा मूषण मिले, उन्हें पहन पहन कर वे रधुनाथजी के पास प्राये। कोशलाधिपति स्वामी नाना प्रकार के चन्दरों को ( विलक्षण पहनावा अर्थात् सिर के भूषण पाँव में और पैर के गले में इत्यादि) देख कर बार वार हँस रहे हैं ॥१॥ चितइ सथन्हि पर कीन्ही दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया । तुम्हरे बल मैं रावन मारा । तिलक बिभीषन कह पुनि सारा ॥२॥ रघुनाथजी ने सब पर दया कर के देखा और कोमल वचन बोले । तुम्हारे ही पल से मैं ने रावण को मारा, फिर विभीषण को राजतिलक किया ॥२॥ निज निज-गृह अब तुम्ह सब जाहू । सुमिरेहु मोहि डरपेहु जनि काहू ॥ बचन सुनत प्रेमाकुल बालर । जोरि पोनि बोले सब सादर ॥३॥ अब तुम सब अपने अपने घर जाते जानो, मुझे याद करना और किसी से डरना मत । इस प्रकार रामचन्द्रजी के वचनों के सुनते ही वन्दर प्रेम से व्याकुल हो गये सब हाथ जोड़ कर आदर के साथ बोले ॥३॥ प्रा जोइ कहहु तुम्हहिँ सब सोहा । हमरे होत 'बचन सुनि मोहा । दीन जानि कपि किये सनाथा । तुम्ह त्रैलोक ईस रघुनाथा ॥४॥ हे स्वामिन् ! आप जो कुछ कहें वह सब सोहता है, परं आप की बातों को सुन कर हम लोगों को मोह (अज्ञान) होता है । हे रघुनाथजी! आप तीनों लोकों के मालिक हैं, (हम सब तो यह समझते हैं) बन्दरों को दीन जान कर आपने सपक्ष बना दिया है ॥ ४॥ सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीं ॥ देखि राम रुख बानर रीछो । प्रेम मगन नहिं गृह के ईछा ॥५॥ स्वामी के वचनों को सुन कर हम लाज से मरे जाते हैं, कहीं मच्छड़ पतिराज की