पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०६७

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रामचरित मानस । परम-सुखद चलि त्रिबिधि बयारी । सागर सर सरि निर्मल बारी । सगुने होहिं सुन्दर चहुँ पासा । मन प्रसन्न निर्मल नम आसा ॥४॥ अतिशय सुखदायिनी तीनों प्रकार की (शीतल, मन्द, सुगन्धित) हवा चल रही है, समुद्र, तालाब और नदियों के जल निर्मल हो रहे हैं। चारों ओर सुन्दर सगुन होते हैं, सब का मन प्रसन्न है, भाकाश और दिशाएँ स्वच्छ शोभित हो रही हैं ॥४॥ कह रघुबीर देखु रन सीता । लछिमन इहाँ हतेउ इंद्रजीता । हनुमान अङ्गद के मारे । रन-महि परे निसाचर भारे ॥५॥ रघुनाथजी ने कहा-हे सीता ! रणक्षेत्र देखो, यहाँ लक्ष्मण ने मेघनाद को मारा है और यह देखो हनूमान-श्रङ्गद के मारने से बड़े बड़े राक्षस युद्धभूमि में पड़े हैं ॥५॥ कुम्भकरन रावन दोउ झाई । इहाँ हते सुर-मुनि-दुखदाई ॥६॥ देवता और मुनियों को दुःख देनेवाले रावण तथा कुम्भकर्ण दोनों भाइयों को यहाँ मैं ने वध किया ॥६॥ हो-इहाँ सेतु बाँधेउँ अरु, थापेउँ सिव सुख-धाम । सीता सहित कृपानिधि, सम्झुहि कीन्ह प्रनाम ॥ यहाँ (समुद्र पर) पुल बाँधा और सुख के स्थान शिवजी की स्थापना की है । कृपा- निधान रामचन्द्रजी ने सीताजी के सहित शङ्कर भगवान को प्रणाम किया। जहँ जहँ करुनासिन्धु बन, कीन्ह बास बिस्राम । सकल देखाये जानकिहि, कहे सबन्हि के नाम ॥११॥ जहाँ जहाँ धन में दयासागर रामचन्द्रजी ने निवास और विश्राम किया था वह सब जानकीजी को दिखाया और सब के नाम कहे ॥११॥ पूर्व में किए हुए कार्यो का उन स्थानों को देख कर रामचन्द्रजी को स्मरण हो पाना 'स्मृति सञ्चारीमाव' है। पी०-सपदि बिमान तहाँ चलि आवा। दंडकबन जहँ परमसुहावा ॥ कुसमजादि अनि नायक नाना । गये राम सब के असथाना॥१॥ विमान चल कर शीघ्र ही वहाँ आया, जहाँ अत्यन्त सुहावना दण्डकवन है । अगस्त्य आदि बहुत से मुनीश्वर जो वहाँ रहते थे, रामचन्द्रजी सब के स्थान में गये ॥१॥ सकुल रिषिन्ह सन पाई असीसा । चित्रकूट आयउ जगदीसा ॥ तहँ करि मुनिन्ह केर सन्तोखा । चलाबिमान तहाँ ते चाखा॥२॥ सम्पूर्ण ऋषियों से आशीर्वाद पा कर जगदीश्वर रामचन्द्रजी चित्रकूट में आये । वहाँ मुनियों को सन्तुष्ट कर के फिर वह श्रेष्ठ वायुयान वहाँ से आगे चला ॥२॥