पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०७१

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श्रीगणेशाय नमः श्रीजानकीवल्लभो विजयते श्रीमद् गोस्वामि तुलसीदास-कृत रामचरितमानस सप्तम-सोपान उत्तरकाण्ड स्त्रग्धरा-वृत्त। केकीकण्ठाभनीलं सुरवर विलसद्विप्रपादाब्जचिन्ह । शोभाय पीतवस्त्र सरसिजनयन सर्वदा सुप्रसन्नम् ॥ पाणी नाराचचापं 'कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमान । नौमीझ जानकीश रघुवरमनिश पुष्पकारूढरामम् ॥१॥ मुरैला के कगठ के समान श्याम वर्ण छवि, देवताओं में श्रेष्ठ, ब्राह्मण के चरण कमल के चिह्न (भृगुलता) से विभूषित, शोभा से पूर्णपीताम्बर पहने, कमल के समान नेत्र, सदा सुप्रसन्न, हाथों में धनुष बाण लिये वानरवृन्द से युक्त, भाई लक्ष्मण से सेवित, जानकीजी के स्वामी, रघुकुल में श्रेष्ठ और पुष्पक विमान पर सवार पूज्य रामचन्द्रजी को मैं निरन्तर प्रणाम करता हूँ। रथोद्धता-वृत्त। कोशलेन्द्र पदकञ्जमज्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ । जानकीकरसरोजलालितो चिन्तकस्य मनभृङ्गसङ्गिनी ॥२॥ कोशल देश के स्वामी (श्रीरामचन्द्रजी) के सुन्दर कोमल चरण-कमल ब्रह्मा और शिवजीसे वन्दित, जानकीजी के कर कमलों से प्यार किये हुए और ध्यान धरनेवाले भक्त- जनों के मन रूपी भ्रमर के साथी हैं ॥२॥