पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०७३

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। 1 रामचरित मानस । की कोई सूचना नहीं मिली, यह ) समझ कर मन में अपार दुःख हुआ। क्या कारण है जो स्वामी नहीं आये, न जाने मुझे कपटी जान कर भुला दिया ॥१॥ अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम-पदारबिन्द अनुरागी॥ कपटी कुटिल सोहि प्रभु चीन्हा । तात नाथ सङ्ग नहिँ लीन्हा ॥२॥ पहा हा ! लक्ष्मण धल्य और बड़े माग्यवान हैं जो रामचन्द्रजी के चरण-कमलों के प्रेमी हैं । प्रभु ने मुझे कपटी और कुटिल समझा, इसी से स्वामी ने मुझको अपने साथ में नहीं लिया ॥२॥ जाँ करनी सबुझहिँ प्रभु मारी । नहिँ निस्तार कलप सत कोरी ॥ जन अवगुन प्रभु मान न काऊ ! दीनबन्धु अति मृदुल सुभाऊ ॥३॥ यदि स्वामी मेरी करनी समझे (स्वामिकाथ्य में तत्पर हनूमान को वाण मार कर मैंने बड़ा अनर्थ किया )तब तो सौ करोड़ कल्प पर्यन्त मेरा उद्धार नहीं हो सकता। परन्तु प्रभु अपने सेवकों के अवगुण को कभी मन में लाते ही नहीं, उनका स्वभाव बहुत ही कोमल है और दोनों के सहायक हैं ॥३॥ मारे जिय भरोस दढ़ साई । मिलिहहिँ राम सगुन सुभ होई ॥ बीते अवधि रहहिँ जाँ प्रानो । अधम कवन जग मोहि समाना ॥४॥ मेरे मन में इसी का दृढ़ भरोसा है कि शुभदायक सगुन होते हैं, रामचन्द्रजी मिलेंगे। अवधि बीतने पर यदि शरीर में प्राण रहे तो संसार में मेरे घरावर अधम दूसरा कौन होगा! ॥४॥ रामचन्द्रजी के प्रोगमन की सूचना न मिलने से विरहजन्य भरतजी के हृदय में शङ्का. दैन्य, चिन्ता, मोह, विषाद, भास, ग्लानि, वितर्क, धृति, मति आदि समचारी भावों का साथ ही उदय होना 'समुच्चय अलंकार' है। दो-राम-विरह सागर सह, भरत मगन मन होत । वित्र रूप धरि पवन-सुत, आइ गयउ जनु पोत ॥ रामचन्द्रजी के वियोग रूपी समुद्र में भरतजी का मन मग्न होता (इवता) है। उसी समय ब्राह्मण का रूप धारण करके पवनकुमार आ गये, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों जहाल हो। बैठे देखि कुसासन, जटा-मुकुट कृसगात । शल राम रघुपति जपत, ववत नयन जलजात ॥१॥ हनूमानजी ने देखा कि भरतजी कुश के आसन पर बैठे हैं, उनके सिर पर जटा का मुकुट है और शरीर दुबला हो गया है। राम राम रघुनाथजी को जपते हैं और कमल-नयनों से आँसू बह रहा है ॥१॥