पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०७६

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । चौ-देखत हनूमान अति हरषेउ । पुलक गात लोचन जल बरळ । मन महँ बहुत भाँति सुख मानी। बोलेउ जवन सुधा सम बानी ॥१॥ (भरतजी की प्रेम दशा को) देख कर हनूमानजी बहुत प्रसन्न हुए. उनका शरीर पुल. कित हो गया और आँतों से जल बहने लगा। मन में बहुत तरह सुखी होकर कानों के लिये अमृत के समान वचन बोले ॥१॥ जासु बिरह सोचहु दिन राती । रटहु निरन्तर गुन गन पाँती ॥ रघुकुल-तिलक सुजन सुख दाता । आयउ कुसल देव मुनि त्राता ॥२॥ हनुमानजी ने कहा- जिनके विरह में दिन रात आप सोच करते हैं और जिनकी भूरि गुपावली निरन्तर रटते हैं। रघुवंश-भूषण, सज्जनों को सुख देनेवाले, देवता और मुनियों के रक्षक (रामचन्द्रजी) आ गये ।।२।। अकेले रघुनाथजी का आगमन सुन कर भरतजी प्रसन्नता के विपरीत चिन्तित हुए। हनूमानजी से सुन चुके थे कि राम-रावण युद्ध हो रहा है। सोचने लगे कि क्या लपमण नहीं उठे । युद्ध में पराजय हुई। सीताजी नहीं लौटीं। क्या कारण है जो रघुनाथजी अकेले आते है । वनके मन की चिन्ता को हनुमानजी ताड़ गये और तुरन्त सन्देह नाशक घचन बोले। रिपु रन जीति सुजस सुर गावत । सीता अनुज सहित प्रभु आवत ॥ सुनत बधन बिसरे सब दूखा । तृषावन्त जिमि पाइ पियूखा ॥३॥ शत्रु को रण में जीत लिया इस सुन्द्र यश को देवता गाते हैं, सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी के सहित प्रभु रामचन्द्रजी आते हैं। यह वचन सुनते ही भरतजी सघ दुःख भूल गये, वे ऐसे प्रसन्न हुए जैसे प्याले ने अमृत पाया हो ॥३॥ को तुम्ह तात कहाँ ते आये। मोहि परम प्रिय बचन सुनाये ॥ मारुत-सुत मैं कपि हनुमाना । नाम मोर सुनु कृपानिधाना ॥४॥ भरतजी ने पूछा-हे तात ! आप कौन हैं और कहाँ से आये हैं जो मुझे अत्यन्त प्यारे वचन सुनाये । हनुमानजी ने कहा हे कृपानिधान । सुनिये, मैं पवन का पुत्र चन्दर हूऔर हनूमान मेरा नाम है ॥४॥ दीनबन्धु रघुपति कर किङ्कर । सुनत भरत.मैंटेउ उठि सादर ॥ मिलत प्रेम नहिँ हृदय समाता । नयन सवत जल पुलकित गाता ॥५॥ मैं दोनबन्धु रघुनाथजी का दास हूँ, यह सुनते ही भरतजी आदर से उठ कर मिले। मिलते हुए प्रेम हदय में नहीं समाता है, आँखों से जल बहता है और शरीर पुलकायमान हो गया है॥५॥