पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०७८

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Y श्राते हैं ॥१॥ सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १००१ मेरा वचन सत्य है । यह सुनकर भरतजी के हृदय में हर्ष समाता नहीं (उमड़ा पड़ता है) घे बार बार पवनकुमार से मिलते हैं। से-भरत चरन सिर नाइ, तुरित गयउ कपि राम पहि। कही कुंसल सब जाइ, हरपि चलेउ प्रभु जान चढ़ि ॥२॥ भरतजी के चरणों में सिर नवा कर हनूमानजी तुरन्त रामचन्द्रजी के पास गये। जाकर सव कुशल समाचार कहो, प्रभु रामचन्द्रजी प्रसन्न होकर विमान पर चढ़ कर चले ॥२॥ हनुमानजी का चलना कारण, रामचन्द्रजी के पास पहुँचना कार्या, दोनों का एक साथ वर्णन अर्थात् चले और तुरन्त पहुँच गये 'प्रथम हेतु अलंकार' है। चौ०-हरपि भरत कोसलपुर आये । समाचार सब गुरुहि सुनाये। पुनि मन्दिर सहँ बात जनाई । आवत नगर कुसल रघुराई ॥१॥ भरत जी प्रसन्न होकर अयोध्यापुरी में आये और सब समाचर गुरुजी को सुनाये । फिर यह बात राजमहल में सूचित कराई कि रघुनाथजी कुशल पूर्वक नगर में सुनत सकल जननी उठि धाई । कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई ॥ समाचार , पुरबासिन्ह पाये । नद अरु नारि हरषि सब धाये ॥२॥ सुनते ही समस्त माताएँ उठ पर दौड़ी, भरतजी ने प्रभु की कुशलता कह कर उन्हें समझाया। नगर-निवासियों ने खबर पाई, पुरुष और श्री सम प्रसन्न होकर घौड़े ॥२॥ दधि दुर्वा रोचन फल फूला । नव तुलसीदल मङ्गल-मूला। भरि भरि हेमथार भामिनी । गावत चली सिन्धुर-गामिनी ॥३॥ दही, दूध, हल्दी, फल, फूल और नवीन तुलसीदल महलमूल वस्तु स्त्रियाँ सुवर्ण के थालों में भर भर कर गाती हुई हाथी को चाल से राजमन्दिर की ओर चली ॥३॥ जो जैसेहि तैसेहि उठि धावहिं । बाल वृद्ध कह सङ्ग न लावहिँ । एक एकन्ह कहँ बूझहिँ भाई । तुम्ह देखे दयाल रघुराई ॥४॥ जो जैसे हैं वे वैसे ही उठ कर दौड़ते हैं, वालंक और वृद्धों को साथ नहीं लेते हैं । एक दुसरे से पूछते हैं कि भाई ! तुमने दयालु रघुनाथजी को देखा है ॥ ४ ॥ अवधपुरी प्रभु, आवत जानी । भई सकल सोमा कइ खानी ॥ भइ सरजू अति निर्मल नीरा । बहइ सुहावन त्रिबिधि समीरा ॥५॥ प्रभु रामचन्द्रजी को आते हुए जान कर अयोध्यापुरी सम्पूर्ण शोभा की खानि हो गई। सरयू नदी अत्यन्त निर्मल जलवाली हो गई और तीनों प्रकार (शीतल, मन्द, सुगन्धि) की सुहावनी बयारिवहती है ॥५॥ १२६