पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०८१

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१००४ , रामचरित-मानस । सकल द्विजन्ह मिलि नायड़ माथा। धरम धुरन्धर रघुकुल नाथा ॥ गहे भरत पुनि प्रभु-पद-पङ्कज । लमत जिन्हहि सुरमुनिसङ्कअज ॥३॥ धर्म धुरन्धर रघुकुल के नाथ ने सम्पूर्ण ब्राह्मणों से मिलकर उन्हें प्रणाम किया। फिर भरतजी ने प्रभु रामचन्द्रजी के चरण कमलों को पकड़ा जिन्हे देवता, मुनि, शिव और यामा नमस्कार करते हैं॥ भरतजी ने प्रभु के चरण कमलों को पकड़ा, इस सामान्य बात का समर्थन विशेष सिद्धान्त से करना कि जिन चरणों को ब्रह्मा, शिव, मुनि और देवता प्रणाम करते हैं 'अर्थान्तरन्यास अलंकार' है। परे भूमि नहिँ उठत उठाये। बर करि कृपासिन्धु उर लाये ॥ स्यामल गात रोम भये ठाढ़े। नव-राजीव-नयन जल बाढ़े ॥४॥ भरतजी भूमि में पड़े हैं उठाने से उठते नहीं हैं, तब कृपासिन्धु रघुनाथजी ने चल कर के उन्हें उठा कर हृदय ले लगा लिया । श्याम शरीर पर रोवें खड़े हो गये, नवीन कमल के समान नेत्रों में जल बढ़ (उमड़) श्राया ॥२॥ हरिगीतिका-छन्द । राजीव-लोचन लवत जल तन, ललित पुलकावलि बनी। अति प्रेम हृदय लगाइ अनुजहि, मिले प्रभु त्रिभुवन धनी ॥ प्रभु मिलत अनुजहि साह मा पहि, जाति नहिँ उपमा कही। जनु प्रेम अरु सिङ्गार तनु धरि, मिले बर सुखमा लही ॥२॥ कमल नयनों से जल वहा जाता है और शरीर में सुन्दर पुलकावली छा गई है । अत्यन्त प्रेम से हृदय में लगा कर छोटे भाई भरतजी से तीनों लोकों के स्वामी रामचन्द्रजी मिले । प्रभु छोटे भाई से मिलते हुए शोभित हो रहे हैं, मुझ से उपमा नहीं कही जाती है । ऐसा मालूम होता है मानों प्रेम और शृङ्गार शरीर धारण कर मिलने में अच्छी शोभा पा रहे हो ॥२॥ रामचन्द्रजी और द्विार, भरतजी और प्रेम परस्पर उपमेय उपमान हैं। प्रेम और भंगार शरीर धारी नहीं होते, यह कवि की कल्पनामात्र अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि, धचन बेगि न आवई । सुनु सिवा सो सुख बचन मन से, भिन्न जान जो पावई ॥ कोसलनाथ आरत, जानि जन दरसन दियो। बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लिया ॥३॥ कृपानिधान रामचन्द्रजी कुशल पूछते हैं। किन्तु भरतजी के मुख से जल्दी वात नहीं निक- खती है। शिवजी कहते हैं-हे पार्वती! सुनो, वह सुख वचन और मन से भिन्न है, वही जान अब कुसल