पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०८४

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १००७ जल को रोकती हैं। सुवर्ण के पाल में भारती उतारती हैं और बार बार प्रभु रामचन्द्रजी के भा को देखती हैं। नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानन्द हरष उर भरहीं । कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि । चितवति कृपासिन्धुरनधीरहि॥३॥ भनेक प्रकार की न्योछावर करती हैं, प्रानन्द और हर्ष हदय में परिपूर्ण हो रहा है। कपासिन्धु रणधीर रधुनाथजी को कौशल्याजी बार बार निरीक्षण कर रही हैं ॥३॥ हृदय बिचारति बाहिँ बारा । कवन भाँति लङ्कापति मारा ॥ अति सुकुमार जुगल मेरे बारे । निसिचर सुमठ महाबल भारे ॥४॥ भार चार हृदय में विचारती हैं कि इन्होंने लवैश्वर का वध किस तरह किया। मेरे दोनों बालक अत्यन्त सुकुमार है और राक्षस योद्धा बहुत बड़े बलवान थे ॥४॥ अनुचित चिन्ता भाव का आभास है, क्योंकि रावणादि राक्षस मर चुके हैं फिर उन की चिन्ता करनी व्यर्थ 'भावाभास है। दो०-लछिमन अरु सीतो सहित, प्रभुहि बिलोकति मात । • परमानन्द मगन मन, पुनि पुनि पुलकित गात ॥७॥ लक्ष्मणजी और सीताजी के सहित प्रभु रामचन्द्रजी को माता देखती हैं, उनका शरीर बार बार पुलकित हो रहा है और मन परम आनन्द में डूब गया है ॥७॥ चौ०-लड़ापति कपीस नल नीला । जामवम्त अङ्गद सुभसोला । हनुमदादि सत्र बानर बीरा । धरे मनोहर मनुज सरीरा ॥१॥ विभीषण, सुग्रीव, नल, नील, जाम्बवान, अाद, और हनूमान आदि श्रेष्ठता के इद सय वानर वीर मनुष्य का मनोहर शरीर धारण किये हैं ॥१॥ भरत सनेह सील प्रत नेमा । सादर सब बरनहिँ अति प्रेमा । देखि नगरबासिन्ह का रीती। सकल सराहहिं प्रभु-पद-प्रीती ॥२॥ भरतजी के स्नेह, शील, व्रत और नियम को अत्यन्त प्रेम से सब आदर के साथ वर्णन करते हैं। नगर निवासियों को गति देख कर उनकी प्रभु रामचन्द्रजी के चरणों की प्रीति को . सराहते हैं ॥२॥ पुनि रघुपति सब सखा बोलाये । मुनि-पद लागहु सकल सिखाये ॥ गुरु वसिष्ठ कुल-पूज्य हमारे । इन्ह की कृपा दनुज रन मारे ॥३॥ फिर रघुनाथजी ने सब मित्रों को बुलाकर सिखाताया कि मुनि के चरणों में प्रणाम करो। गुरु वशिष्ठजी हमारे कुलपूज्य हैं, इन्हीं की कृपा से हमने राक्षसों को रण में मारा है ॥३॥