पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०९

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रामचरितमानस सती-सिरोमनि सिय-गुन-गाथा । साइ गुन अमल अनूपम पाथा ॥ सुभाउ सुसोतलताई । सदा एकरस बरनि न जाई ॥४॥ इस अनुपम जल का निर्मल गुण सतियों की शिरोमणि सीताजी के गुणों की कथा है। भरतजी का स्वभाव जो सदा एक समान रहता है और जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, यह सुन्दर शीतलता गुण है l दो-अवलोकनि बोलनि मिलनि, प्रीति परसपर हास। भायप भलि चहुँ बन्धु की, जलमाधुरी सुबास ॥४२॥ चारों भाइयों का आपस में निहारना, बोलना, मिलना हँसना, प्रीति और सुन्दर भाई चारा वही जल मोठापन और सुगन्ध-गुण है ॥४२॥ चौ०-आरति बिनय दीनता मारी। लघुता ललित सुवारि न खोरी ।। अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पियास मनामल-हारी ॥१॥ मेरी आर्ति, बिनती और दीनता, इस स्वच्छ जल का हलकापन गुण है, किन्तु इससे लालित्य में दोष नहीं आया है। यह विलक्षण जल सुनते ही गुण करता है, श्राशा रूपी प्यास और मन के मैल को दूर कर देता है ॥१॥ पानी का श्रेष्ठ गुण निर्मलता, शीतलता, मधुरता, जुगन्ध, हलकापन, मलहारिता और पिपासाशामकता है । येही ऊपर गिनाये गये हैं। हलकापन भी और निर्दोष भी ! इस वाक्य में विरोधाभास अलंकार' है। राम सुप्रेमहि पोषत पानी । हरत सकल कलि-कलुष गलानी ॥ भव सम सोषक तोषक तोषा । समन दुरित दुख दारिद दोपा ॥२॥ गमचन्द्रजी के प्रति सुन्दर प्रेम को यह पानी पुष्ट करता है और कलि के पापा से उत्पन्न मनस्ताप को हर लेता है। संसार की थकावट को यह सोखनेवाला, सन्तोष को भी सन्तुष्टकारक और पाप, दुःख, दारिद्रय, दोपों का नतानेवाला है ॥२॥ काम कोह मद मोह नसावन । विमल बिबेक विराग बढ़ावन ॥ सादर मज्जन पान किये ते । मिदिहि पाप परिताप हिये ते ॥३॥ क्रोध, मद, मोह सा नसानेवाला और निर्मल ज्ञान वैराग्य का बढ़ानेवाला है। श्रादर-पूर्वक स्तान और पान करने पर हृदय से पाप एवम् सन्ताप मिट जायगे ॥३॥ सभा की प्रति में 'मिहि' पाठ है। जिन्ह एहि बारि न मानस धोये । ते कायर कलिकाल बिगाये । तृपित निरखि रवि-कर-भव-बारी। फिरिहहिँ मृग जिमि जीव दुखारी ॥४॥ जिन्होंने इस जल से अपने मनशो नहीं धोया, उन कायरों को कलिकाल ने बिगाड़ दिया । वे प्राणी श्राशारूपी प्यास बुझाने के लिए संसारी विषयों की वृष्णा में दौड़ कर ऐसे काम,