पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०९२

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०१३ भिन्न भिन्न अस्तुति करि, गये सुर निज निज धाम ॥ बन्दी देश बेद तब, आये नीराम ॥ अलग अलग स्तुति करके सब देवता अपने अपने धाम को गये तय वेद बन्दीजन के वेष में जहाँ श्रीरामचन्द्रजी हैं, वहाँ पाये । प्रभु सर्बज्ञ कीन्ह अति, आदर कृपानिधान । लखेउ न शाहू मरम कछु, लगे करन्द गुन गान ॥१३॥ कृपानिधान सर्वज्ञ प्रभु रामचन्द्रजी ने उनका अत्यन्त बाद किया। इसका भेद लिस' कुछ नहीं लखा, चारों वेद गुणगान करने लगे ॥ १२ ॥ हरिगीतिका-छन्द । जय ‘सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप खूप खिरोमने । दसकन्धरादि प्रचंड निसिचर, प्रबल खल भुजबल हले। अवतार नर संसार भार बिजि दारुन दुख दहे। जय प्रनतपाल दयाल प्रा सज्जुक्त सक्ति नलाम हे ॥७॥ हे राजाओं के मुकुट-मणि ! अनुपम रूपवाले, सगुण और निर्गुण रूप आप की जय हो । रावण आदि महाबली विकट दुष्ट राक्षसों को अपनी भुजाओं के बल से आप ने वध किया। मनुष्य का अवतार ले कर आप ने संसार का बोझ हटाया और भीषण दुःख नसाया । हे शरणागतरक्षक दयालु स्वामी ! आप की जय हो, हम सीताजी के सहित पाप को नमस्कार करते हैं ॥७॥ आप सगुण भी है और निगुण भी हैं, जो गुण रहित सगुण तो कैसे ? इस विरोधी वर्णन में विरोधाभास अलंकार' है। तव विषम माया बस सुरासुर, नाग नर अग जग हरे। भवपन्धभ्रमत अमित दिवस निसि, काल कर्म गुनन्हि भरे । जे नाथ करि करुना बिलोके, निबिधि दुख ते निर्वहे । भव-खेद छेदन दच्छ हम कह, रचल राम नमाम है ॥८॥ हे हरे । देवता, दैत्य, नाग, मनुष्य, जड़ और चेतन सब आप की उन माया के अधीन 'हैं। वे काल, कर्म और गुणों से भरे हुए दिन रात असंख्यों संसारी-माग में भटकते फिरत हैं। हे नाथ ! जिन को आप ने दया की अष्टि से देखा, वे तीनों प्रकार (जन्म, मृत्यु, गर्म पाल) दुःख से छुटकारा पागये । हे रामचन्द्रजी! आप संसार सम्बन्धी दुम्स के मिटाने में के मषीण हैं हमारी रक्षा कीजिये, हम आप को प्रणाम करते हैं |