पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०९५

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१०१६ रामचरित मानस । तोटक-वृत्त। जय राम रमा-रमनं समनं । भवताप भयाकुल पाहि जनं ॥ अवधेष सुरेल रमेत बिभी । सरनागत माँगत पाहि प्रभो ॥१॥ हे रामचन्द्रजी ! आँप फी जय हो, आप लक्ष्मी को रमानेवाले, संसारी तापे के नाशक और भय से दुखीजनों की रक्षा करनेवाले हैं। हे अयोध्यानाथ, देवताओं के स्वामी, लक्ष्मीपते, समर्थ, प्रभो ! मैं आप की शरण आया हूँ और वर माँगता मेरी रक्षा कीजिये ॥२॥ इससीस बिनासन बीस भुजा । कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ॥ रजनीचर-वृन्द पतङ्ग रहे । सर पावक तेज प्रचंड दहे ॥२॥ रावण के दस सिर और बीस भुजा का नाश करके आपने पृथ्वी के बहुत बड़े रोग को दूर किया। राक्षसों के झुण्ड पाँखी रूप थे, उन्हें वाणं रूपी प्रचण्ड तीन अग्नि में भस्म कर दिया ॥२॥ महिमंडल भंडन चारु तरं । धृत सायक चाप निषङ्ग बरं ॥ मद मोह महा ममती रजनी । तम पुज दिवाकर तेज अनी ॥३॥ श्राप पृथ्वी मण्डल के अतिशय सुन्दर भूषण रूप और श्रेष्ठ धनुष बाण, तरकस धारण किये हैं मद, महामोह और ममता रूपी रात्रि के धने अन्धकार को नाश करने में आप तीक्ष्ण किरणों के सूर्य रूप हैं ॥२॥ मनजात किरात. निपात किये । मृग लोग कुभोग सरेन हिये । हति नाथ अनाथम्हि पाहि हरे । विषयावन पावर भूलि परे ॥४॥ हे नाथ! कामदेव रूपी किरात (शिकारी) ने मनुष्य रूपी मृगों के हृदय को कुभोग रूपी पाण मार कर आहत कर दिया है। हे हरे | विषय रूपी वन में भूल कर पड़े हुए उन अधम अनाथों की रक्षा कीजिये ॥४॥ बहु रोग वियोगन्हि लोग हये । भवदंघ्रि निरादर के फल ये ॥ भवलिन्धु अगाध परे ,नर ते । पद-पङ्कज प्रेम न जे करते ॥५॥ लोग बहुत से रोग और वियोगों से दुखी हैं, आप के चरणों के अनादर करने के ये फल हैं। वे मनुष्य संसार रूपी अथाह समुद्र में पड़े हैं, जो पद-कमलों में प्रेम नहीं करते ॥५॥ अति दीन मलीन दुखी नितहीं । जिन्ह के पद-पङ्कज प्रेम नहीं । अवलम्ब भवन्त कथा जिन्ह के । प्रिय सन्त अनन्त सदा तिन्ह के ॥६ वे अत्यन्त दीन, मलिन और नित्य ही दुखी रहते हैं, जिनकी श्राप के चरण-कमलों में प्रीति नहीं है। जिनको आप की कथा का माधार है, उनको सन्त और ईश्वर सदा प्यारे लगते हैं ॥६॥