पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०९६

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०१७ नहिं राग न लेोम ल मान मदा । तिन्ह के सम वैभव वा शिपदा । यहि ते तव सेवक होत मुदा । मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ॥७॥ जिन के मन में मोह नहीं, लेमि नहीं, न दूसरों से बड़प्पन पाने की चाह और घमण्ड है, उनके लिये सम्पत्ति या विपत्ति दोनों समान हैं। इसी से लाए के सेवक ( भक्तजन) प्रसन्न होते हैं और मुनि लेग योग का भरोसा छोड़ कर सदा भकि चाहते हैं ॥७॥ करि प्रेम निरन्तर लेम लिये। पद-पङ्कज सेवत सुद्ध हिये । सम मानि निरादर आदरही । सब सन्त सुखी बिचरन्ति मही ॥८॥ जो निरन्तर प्रेम का नेम ले कर शुद्ध हय से चरण कमलों का सेवन करते हैं। भादर और भनादर को परावर मानते हैं, वे सन्तजन सारी धरती पर सुख से विचरण करते हैं ||}} मुनि-मानस-पङ्कज-भृक्ष भजे । रघुबीर महा रनधीर अजे ॥ तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग सहा मद मान अरी ॥६॥ हे.अजेय, महारणधीर रघुवीर ! श्राप मुनियों के मन रूपी कमल के भ्रमर हैं। हे हरे! मैं पाप का नाम जपता हूँ, और श्राप फो नमस्कार करता है, घर मद और अहङ्कार रूपी संसारी रोग के आप बैरी हैं॥६॥ गुटका में भव रोग महा गद मान अ पाठ है। गुन सील कृपा परमायतनं । प्रनमामि निरन्तर नीरमनं ॥ रघुनन्द निकन्दय द्वन्द धन । महिपाल बिलोकय दीन जन ॥१०॥ हे गुण, शील शौर कृपा के अत्युत्तम स्थान लक्ष्मीरमण ! मैं शाप को निरन्तर प्रणाम करता है। हे रघुनन्दन ! कलहराशि को नसाइये, राजन् ! इस दीन जन की ओर निहारिये ॥ १०॥ दो-चार बार बर माँगउँ, हरषि श्रीरङ्ग ॥ पद-सरोज अनपायनी, भगति सदा सतसङ्ग ॥ हे लक्ष्मीनाथ मैं बार बार घर माँगता , मल होकर शप चरण-कमलों की निश्चल भक्ति और सदा सत्ला दीजिये। बरनि उमापति रामगुन, हरपि गये कैलास । तब प्रभु कपिन्ह दिवाये, सब विधि सुख-मद् बास ॥१४॥ उमानाथ रामचन्द्रजी के गुण, वणन कर प्रसन्नता से कैलास को गये। तब प्रभु राम. नन्दजी ने वानरों को सब तरह सुख देनेवाला (रहने के लिये) स्थान दिलवाये ॥ १४ ॥ चौ०-सुनु खगपास यह कथा पावनी । त्रिबिधि ताप भव भय दावनी । महाराज कर सुभ अभिषेका । सुनत लहहिँ नर विरति विवेका ॥२॥ कागभुशुण्डजी कहते हैं-हे खगराज ! मुनिये, यह पवित्र कथा तीनों ताप और संसार. १२०