पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०९९

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१०२० रामचरित-मानस । परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा । कहा बिबिधि विधि ज्ञान बिसेखा ॥ प्रभु सनमुख कछु कहत न पारहि। पुनि पुनि चरन-सरोज निहारहिँ ॥२॥ प्रभु रामचन्द्रजी ने उनका अत्यन्तप्रेम देख कर नाना प्रकार के विशेष जान कहे । वे स्वामा के जामने कुछ कह नहीं सकते हैं, बार बार चरण कमलों को देखते हैं ॥२ तब प्रक्षु भूषन बसन मँगाये। नाना रङ्ग अनूप सुहाये ॥ सुग्रीवहिं प्रथमहिँ पहिराये । बसन भरत निज़ हाथं बनाये ॥३॥ तव स्वामी रामचन्द्रजी ने अनेक रश के अनुपम सुहावने भूषण और वस्त्र मैंगवाये । भरतजी ने अपने हाथ से बना कर पहले सुग्रीव को वस्त्र पहनाये ॥२॥ प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराये । लङ्कापति रघुपति मन भाये ॥ बैठ रहा नहिँ डोला । प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला ॥४॥' प्रभु की आशा ले लक्ष्मणजी ने लापति विभीषण को पहनाये, जो रघुनाथजी के मन को अच्छे लगे । अनद बैठे ही रहे वे हिले नहीं, उनकी प्रीति देख कर रामचन्द्रजी ने उन्हें (विदाई के लिये) नहीं बुलाया ॥४॥ दो जासवन्त नीलादि लब, पहिराये रघुनाथ । हिय धरि राम रूप सब, चले नाइ पद माथ ॥ जाम्बवान और नील आदि सब को रघुनाथजी ने स्वयम् वस्त्राभूषण पहनाये । सब रामचन्द्रजी के रूप को हृदय में रख कर चरण में मस्तक नवा कर चले । तब अङ्गद उठिनाइ सिर, सजल नयन कर जोरि। अति बिनीत बोले बचन, मनहुँ प्रेम रस बोरि ॥१७॥ तब अङ्गद ने उठ कर सिर नवाया आँखों में पार्टी भरे हाथ जोड़ कर अत्यन्तं विनीत . धचन बोले । पेसो मालुम होता है मानों वे वचन प्रेम-रस में सने हो ॥१७॥ चौ०-सुनु सर्बज्ञ कृपा सुख सिन्धो । दीन दयाकर आरतबन्धेो । मरती बेर नाथ माहि बाली। गयउ तुम्हारेहि काँछे घाली ॥१५ हे सर्वश. दया और सुरू के समुद्र, दीनों पर दया करनेवाले, दुःखीजनों के सहायक, स्वामिन् । सुनिये, मरते समय पाली मुझे आप ही की गोद में डाल गया है । असरन सरन बिरद सम्भारी । माहि जनि तजहु भगत हितकारी । आरे तुम्ह प्रभु गुरु पितु माता । जाउँ कहाँ तजि पद-जलजाता ॥२॥ आप अशरण को शरण देनेवाले और भक्तों के कल्याण का , अपनी नामवरी का ख्याल करके मुझे मत त्यागिये। मेरे स्वामी, गुरु, पिता और माता आप ही हैं, इन चरण- कमलों को छोड़ कर मैं कहाँ जाऊँ ? ॥२॥