पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११०

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । दुखो होंगे, जैसे प्यासा भृग, सूर्य की किरणों को देख कर (उसमें जल अनुमान कर) दौड़ता और व्यर्थ ही मूर्खता से प्राण गँवाता है ॥९ दो-मति अनुहारि लुबारि गुन, गन गनि मन अन्हवाइ । सुमिरि भवानी-सङ्करहि, कह कबि कथा सुहाइ ॥ अपनी बुद्धि के अनुसार सुन्दर जल के गुणों की गणना कर और मन को स्नान कराकर पार्वती-शङ्कर का स्मरण छर के कधि सुहावनी कथा कहता है। यहाँ पर्यन्त मानस का सारूपक वर्णन हुआ और संसार में इसके प्रचार का कारण कहा गया, अब कथा प्रसङ्ग का प्रारम्भ होता है। अब रघुपति-पद-पङ्करुह, हिय धरि पाइ प्रसाद। कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर, मिलन सुभग सम्बाद ॥४३॥ श्रव रधुनाथजी के चरण कमलों को हृदय में रख कर और प्रसन्नता पा कर मैं दोनों मुनिवरों के मिलने का सुन्दर सम्बाद कहता ॥३॥ चौ०-भरद्वाज मुनि बसहि प्रयागा। तिन्हहिँ राम-पद अति अनुरागा। तापस सम-दम-दया निधाना । परमारथ-पथ परम सुजाना ॥१॥ भरद्वाज मुनि प्रयाग में रहते हैं, उन्हें रामचन्द्रजी के चरणों में बड़ा प्रेम है । वे तपस्वी, शान्त, इन्द्रियों को वश में करनेवाले, दया के स्थान और परमार्थ की राह में अत्यन्त चतुर हैं ॥१॥ माघ मकर-गत-रबि जब हाई। तीरथपतिहि आव सब कोई ॥ देवदनुज-किन्नर-नर-सेनी । सादर मज्जहिँ सकल त्रिबेनी ॥२॥ माध के महीने में जब सूर्य मकर राशि पर पहुँचते हैं, तब सब कोई तीर्थराज में आते हैं। • देवता, दैत्य, किशर और मनुष्यों के झुण्ड सभी पादर-पूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं ॥२॥ पूजहिँ माधव-पद-जलजाता। परसि अषयवट हरषहिँ गाता ॥ भरद्वाज-आश्रम अति पावन । परम-रम्य मुनिबर, मन भावन ॥३॥ भगवान् माधव के चरण कमलों को पूजते हैं और अक्षयवट को छू कर मन में प्रसन्न होते हैं । वहाँ अत्यन्त पवित्र मुनिवरों के मन में सुहानेवाला खूब ही रमणीय भरद्वाजजी का आश्रम है ॥३॥ 'गात शब्द में मन या वृदय की लक्षणा है, क्योंकि हर्ष का स्थान. हदय या मल है गात नहीं। तहाँ हाइ मुनि-रिषय-समाजा। जाहिँ जे मज्जन तीरथराजा ॥ मज्जहिं प्रात समेत उछाहा । कहहिं परसपर हरि-गुन-गाहा ॥४॥ तीर्थराज मैं जो स्नान करने जाते हैं, वहाँ (भरद्वाजजी के श्राश्रम में) मुनि और ऋषियों का जमाव होता है। प्रातःकाल उत्साह सहित स्नान करते हैं और आपस में भगवान के गुणों की कथा कहते हैं ॥en सभा को प्रात में 'जाहिजे मज़महि' पाठ है !