पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११०१

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६०२२- रामचरित-मानस। कर उन्हें विदा करने चले । अङ्गद के हदय में थोड़ा प्रेम नहीं है, वे फिर फिर कर रामचन्द्रजी की ओर निहारते हैं ॥१॥ बार बार कर दंड-प्रनामा । मन अस रहन कहहिँ मेाहि रामा । राम बिलोकनि बालनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी ॥२॥ बार बार दण्डवत प्रणाम कर के अङ्गद मन में ऐसा चाहते हैं कि मुझे रामचन्द्रजी रहने को फहे । रामचन्द्रजी का निहारना, बोलना, चलना ओर हँस कर मिलना सुमिर सुमिर कर अङ्गद लोचते हैं ॥२॥ प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाखी । चलेउ हृदय पद-पङ्कज राखी ॥ अति आदर लक्ष कपि पहुँचायें। माइन्ह सहित राम फिरि आये॥३॥ स्वामी के रुख को देख कर अव बहुत सी विनती करके चरण-कमलों को हृदय में रख कर चले । अस्पन्त आदर से सब वानरों को पहुँचा कर भाइयों के सहित रामचन्द्रजी लौट , प्राये ॥३॥ सब सुग्रीव चरन गहि नाना । भाँति बिनय कीन्ही हनुमाना ॥ दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा ॥४॥ तब सुग्रीव के पाँव पकड़ कर हनुमानजी ने अनेक तरह से विनती का । हे देव ! इस दिन रघुनाथजी के चरणों की सेवा करके फिर आपके पदों का दर्शन करूँगा ॥४॥ पुन्य-पुत तुम्ह पवन-कुमारा । सेवहु 'जाइ कृपा-आगारा ॥ अस कहि कपि सब चले तुरन्ता । अङ्गद कहइ सुनहु हनुमन्ता ॥५॥ सुग्रीव ने कहा-हे पवनकुमार! श्राप पुण्य की राशि हो, जा कर कृपा के स्थान राम- चन्द्रजी की सेवा करो। ऐसा कह कर सव बन्दर तुरन्त चल दिये, असद ने कहा-हे हनूः मानजी ! सुनिये ॥५॥ दो कहेहु दंडवत प्रभु सन, तुम्हहिँ कहउँ कर जोरि । बार बार रघुनायकहि, सुरति करायेहु मोरि ॥ प्रभु से मेरी दरख्वत कहना, मैं आप से हाथ जोड़ कर कहता हूँ कि मेरी याद बार बार रघुनाथजी को कराते रहना। अस कहि चलेउ बालि-सुस, फिरि आयेउ हनुमन्त । तासुप्रीति प्रभु सन कही, मगन भये भगवन्त । ऐसा कह कर बालिकुमार चल दिये और हनूमानजी लौट आये । उनको प्रीति प्रभु राम- चन्द्रजी से कही, सुन कर भगवान प्रेम में मग्न है। गये ।.