पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११०६

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सप्तम सोपानं, उत्तरकाण्ड । १०२७ दो०-बिधु महिपूर मयूख न्हि, रबि तप जेतनेहिँ काज । माँगे बारिद देहि जल, रामचन्द्र के राज ॥२३॥ चन्द्रमा किरणों से धरती को पूर्ण करते हैं और सूर्य उतना ही तपते हैं जितना काम रहता है। रामचन्द्रजी के राज्य में बादल माँगने से पानी देते हैं ॥२३॥ चौ०-कोटिन्ह बाजिमेध प्रा कीन्हे । दान अनेक दिजन्ह कह दीन्हे ॥ सुति पथ पालक धरम-धुरन्धर । गुनालीत अरु भाग-पुरन्दर ॥१॥ राजा रामचन्द्रजी ने करोड़ों अश्वमेध यज्ञ किये और बहुत सा दान ब्राह्मणों को दिये। वेद-मार्ग के पालन करनेवाले, धर्म धुरन्धर, गुणों से परे और भोग-विलास में इन्द्र हैं ॥१॥ पति अनुकूल सदा रह सीता । सामाखानि सुसील बिनीता । जानति कृपासिन्धु मनुताई। सेवति चरन-कमल मन लाई ॥२॥ सीताजी सदा पति के अनुकूल रहती हैं, वे शोमा की खान, सुशील, नत्र और कृपा- सागर रामचन्द्रजी की महिमा को जानती हैं, इससे मन लगा कर उनके चरण-कमलों की सेवा करती हैं ॥२॥ जापि गृह सेवक सेवकिली । बिपुल सकल सेवा-निधि गुनी । निज कर गृह परिचरजा कगई । रामचन्द्र आयसु अनुसरई ॥३॥ यद्यपि घर में सेवक सेवक्षिनियाँ बहुत सी हैं, वे सम्पूर्ण लेवा की विधि में चतुर हैं। तथापि सीताजी गृह की परिचा (स्वामी की शुश्रुषा उपासना) अपने हाथ से करती है और रामचन्द्रजी की माता के अनुसार चलती हैं ॥३॥ जेहि बिधि कृपासिन्धु सुख्ख मालइ । साह कर श्वी सेवा-विधि जानइ । कौसल्यादिः सासु गृह माहीं । सैवइ सबन्हि मान मद नाहीं ॥४॥ जिस प्रकार कृपासागर रामचन्द्रजी सुरु मानते हैं, सीताजी सेवा-विधि उले ही सम झती हैं। घर में कौशल्या प्रादि सभी सासुओं की सेवा मान मद त्याग कर करती हैं ॥४॥ उमा रमा ब्रह्मादि बन्दिता । जगदम्बा सन्ततमनिन्दिता 1 जो सीताजी पार्वती, लक्ष्मी और ब्रह्मा आदि देवताओं से चन्दनीय, जगत की मातां और सदा अनिन्ध हैं ॥५॥ दो०-जासु कृपा-कटाच्छ सुर, चाहत चितवन सोइ । राम-पदारविन्द रति, करति सुझावहि खोइ ॥२४॥ जिनकी कृपारष्टि की चितवन देवता चाहते हैं, वही सीताजी अपना स्वभाव (महिमा) भुला कर रामचन्द्रजी के चरण-कमलों में प्रीति करती हैं ॥ २४ ॥ .