पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१११

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रामचरित मानस । दो०-ब्रह्म निरूपन धर्म-बिधि, बरनहिं तत्व-विभाग । कहहिं भगति भगवन्त के, सज्जत-ज्ञान-विराग neen ब्रह्म-विचार, धर्म-विधान और वास्तविक स्थिति (सारवस्तु ) का अलग अलग वर्णन करते हैं । ज्ञान-वैराग्य से मिली हुई भगवान की भकि कहते हैं ॥४॥ चौ०-एहि प्रकार भरिभाष नहाही । पुनि सब निज निज आलम जाही। प्रति सम्बत अति होइ अनन्दा । मकर मज्जि गवनहिँ मुनिबन्दा॥१॥ इस प्रकार माघ भर स्नान करते हैं, फिर सब अपने अपने स्थान को चले जाते हैं। हर साल बड़ा आनन्द होता है, मुनि-समूह मकर नहा कर प्रस्थान करते हैं ॥१॥ एक बार भरि मकर नहाये । सब मुनीस आस्खमन्ह सिधाये ॥ जागबलिकमुनिपरमबिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी ॥२॥ एक वार मकर भर स्नान करके सब सुनीश्वर अपने अपने आश्रमों को गये । अत्युत्तम शानी याज्ञवल्क्य मुनि के पाँव पकड़ कर भरद्वाजली ने रोक लिया ॥२॥ सादर चरन-सरोज पखारे । अति पुनीत आसन बैठारे । करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु-बानी ॥३॥ आदर के साथ चरण-कमलों को धो कर बहुत ही स्वच्छ आसन पर बैठाया। पूजा कर के मुनि का सुयश बखान किया और अत्यन्त पवित्र कोमल चाणी से कहा ॥३॥ नाथ एक संसय बड़ मारे । करगत वेद-तत्व सब तारे। कहत सो मोहि लागत अय लाजा । जौँ न कहउँ बड़ होइ अकाजा ॥४॥ हे नाथ ! मेरे मन में एक बड़ा सन्देह है और वेदों को सय यथार्थता श्राप की मुट्ठी में - है। पर वह कहते हुए मुझे डर और लज्जा लगती है, यदि न कहूँ तो धड़ा अकाल होगा ॥४॥ दो-सन्त कहहिँ अस नीति प्रभु, सुति-पुरान-मुनि गाव । होइ न बिमल बिबेक उर, गुरु सन किये दुराव ॥४॥ हे स्वामिन् ! सन्तजन ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनि भी गाते हैं कि गुरु से छिपाय करने पर हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता ॥४५॥ चौ-असबिचारि प्रगदउँ निजमोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू ॥ राम नाम कर अमित प्रभावा । सन्त पुरान उपनिषद गावा ॥१॥ ऐसा समझ कर अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ, हे नाथ ! इस दास पर कृपा कर के उसको दूर कीजिए । उपनिषद्, (ब्रह्मविद्या जिसमें आत्मा, परमात्मा आदि का निरूपण रहता है) पुराण और सन्त, राम नाम की अतिशय महिमा गाते हैं ॥१॥ .