पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११११

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१०३२ रामचरित मानस। राजघाद सब विधि सुन्दर घर । मज्जहिं . तहाँ बरन चारिउ नर ॥ तीर तीर देवन्ह के मन्दिर । चहुँ दिसि जिन्ह के उपबन सुन्दर ॥२॥ सब प्रकार सुन्दर और श्रेष्ठ राजघाट है, वहाँ चारों वर्ण के भनुभ्य स्नान करते हैं। नदी के किनारे किनारे देवताओं के मन्दिर हैं, जिनके चारों ओर सुन्दर बगीचे लगे हैं ॥२॥ कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिँ ज्ञानरत मुनि सन्यासी ॥ तीर तीर तुलसिका सुहाई। वृन्द बन्द बहु मुनिन्ह लगाई ॥३॥ कहीं कहीं नदी के तौर पर विरत पुरुष, शान में तत्पर मुनि और सन्यासी रहते हैं । किनारे किनारे तुलसी के सुहावने क्षुप मुण्ड के झुण्ड बहुत से मुनियों ने लगाये हैं ॥३॥ पुर सोमा कछु घरनि न जाई । बाहिर नगर परम रुचिराई ॥ देखत्त पुरी अखिल अघ भागा । बन उपबन बापिका तड़ागा ॥४॥ नगर की शोभा कुछ कही नहीं जाती है, पुर के बाहर बड़ी रमणीयता है । अयोध्यापुरी के वन, वगीचे, बावलियाँ और तालावों को देखते ही सारा पाप भाग जाता है ॥४॥ हरिगीतिका-छन्द । बापी तड़ाग अनूप कूप, मनोहरायत साहहीं। सोपान सुन्दर नीर निर्मल, देखि सुर मुनि माहहीं बहुरङ्ग, कञ्ज अनेक खग, कूजहिँ मधुप गुजारहीं। आराम रम्य पिकादि खगरव, जनु पथिक हङ्कारहीं ॥१५॥ अनुपम विशात बावलियाँ, तालाब और मनोहर कुएँ सोहते हैं। उनकी सुन्दर सीढ़ियाँ और निर्मल जल देखकर देवता-मुनि मोहित हो जाते हैं। बहुत रक के कमल फूले हैं, नाना प्रकार के पक्षी बोलते हैं और भंवरे गुजारते हैं। रमणीय बागों में कोकिल आदि पक्षियों की वाली ऐसी मालूम होती है मानो वोहियों को विश्राम करने के लिये पुका- रती हो ॥१५॥ पक्षियों का प्रसन्नता से कूजना सिद्ध श्राधार है, परन्तु पक्षी-गण कमी राह चलनेवाले को भारान के लिये नहीं बुलाते। इस अहेतु को हेतु हराना सिद्ध विषक्षा हेतूत्प्रेक्षा अलं. देो-रमानाथ जहँ राजा, सो पुर बरनि कि जाइ। अनिमादिक सुख सम्पदा, रही अवध सब छाइ ॥२६॥ जहाँ लक्ष्मीपति राजा हैं, क्या उस नगर का वर्णन किया जा सकता है । (कदापि नहीं)। अणिमा श्रादि पाठो सिद्धियाँ. सुख और सम्पत्ति सब अयोध्यापुरी में टिक रही हैं ॥२॥ .