पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१११३

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१०३४ रामचरित मानस । चौ०-जब तैं राम प्रताप खगेसा । उदित भयेउ अति प्रबल दिनेसा॥ .' . पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका । बहुतेन्ह सुख बहुतन्ह मन सोका १॥ कागभुशुण्डजी कहते हैं-हे पक्षिराज ! जब से राप्रवन्द्रजी का प्रताप रूपी अत्यन्त प्रवल सूर्य उदय सुश्रा, तब से तीनों लोकों में पूर्ण प्रकाश हो रहा है। बहुतों को सुख और बहुतों के मन में शोक हुआ है ॥१॥ एक रामप्रताप रूपी सूर्य के प्रकाश से बहुतों को सुख और बहुतों का दुःख, विरोधी कार्य का प्रकट होना 'प्रथम व्याघात अलंकार है। जिन्हहिँ सोक ते कहउँ बखानी । प्रथम अघिझा-निसा नसानी । अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने । काम क्रोध कैरव सकुचाने ॥२॥ जिन्हें शोक हुश्रा उन्हें बखान कर कहता हूँ, पहले अज्ञान रूपी रात्रि नष्ट हो गई। पाप रूपी उल्लू-पक्षी जहाँ तहाँ छिप गये, काम और क्रोध रूपी कुमुद सकुचा गये ॥२॥ बिबिधः कर्म गुन काल सुभाऊ । ये चकोर सुख लहहि न काऊ ॥ मत्सर मान मोह भंद चोरा । इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा ॥३३ : अनेक प्रकार के कर्म, शुख, काल और स्वभाव रूपी चकोर ये कभी सुख नहीं पाते हैं। ईया, अभिमान, अज्ञानता और उन्मत्तता रूपी चोरों का हुनर (धोनेवाली ) किसी और नहीं है ॥३॥ घरम सड़ाग ज्ञान विज्ञाना । ये पङ्कज, बिकसे बिधि नाना । सुख सन्तोष बिराग विबेका । बिगत सोक ये कोक अनेका ॥४॥ 'धर्म रूपी तालाब में ज्ञान और विज्ञान रूपी कमल ये नाना प्रकार के फूले हुए हैं । सुख, सन्तोष, वैराग्य और ज्ञान ये अनेक चक्रवा-पक्षी शोक रहित हुए हैं ।।४॥ दो-यह प्रताप-रबि जाके, उर जब करइ प्रकास । पछिले बाढहि प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास ॥३१॥ यह रामप्रताप रूपी सूर्य जब जिसके हृदय में प्रकाश करता है, तब पिछले बढ़ते हैं और जो पहले कहे.हैं वे नाश को प्राप्त होते हैं ॥३१॥ पिछले कहे-धर्म, शान, विज्ञान, सुख, सन्तोष, वैराग्य और विचार बढ़ते हैं प्रथम -प्रज्ञान की रात्रि, पाप, काम, क्रोध, कम, गुण, काल, 'स्वभाव के दोष, मत्सर, मान, मोह और मद नाश हो जाते हैं। चो-भातन्ह सहित राम एक धारा । सङ्ग परम प्रिय पवन-कुमारी ॥ सुन्दर उपबन देखन गये। सब तरु कुसुमित पल्लव नये ॥१॥ भाइयों के सहित और साथ में परम प्यारे पवनकुमार को लिये हुए एक बार राम- चन्द्रनी सुन्दर धंगीचो देखने गये, जहाँ सब वृक्ष फूले और नये पत्तों से लदे हैं ॥१॥ -