पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१११४

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सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड । १०३५ जानि समय सनकादिक आये। तेजपुञ्ज गुन सील सुहाये ॥ ब्रह्मानन्द सदा लपलोना । देखत बालक बहु कालीना ॥२॥ समय जान कर यहाँ सनकादिक ऋषीश्वर तेज के राशि, सुन्दर गुण और शीलवाले प्राये। वे सदा,ब्रह्मानन्द में लीन रहते हैं, देखने में बालक (५ वर्ष के) हैं, पर वास्तव में बहुत काल के पुराने हैं ॥२॥ रूप धरे जनु पारिउ बेदा । समदरसी मुनि शिग बिभेदा ॥ आसा बसन व्यसन यह तिहहीं। रघुपतिचरित होइ तह सुनहीं॥३॥ ऐसे मालुम होते हैं गानों चोरों घेद शरीर धरे हैं, वे मुनि समदर्शी और भेद से रहित हैं। दिशा हो वस्त्र अर्थात् नग्न रहते हैं, उनको यह व्यसन है कि जहाँ रघुनाथजी का चरित होता है वहाँ जा कर सुनते हैं ॥३॥ सनक, सनातन, सनन्दन और सनत्कुमार चारों ब्रह्मा के पुत्र उत्प्रेक्षा के विषय हैं । वेद शरीरधारी नहीं है, यह केवल कवि को करारनामान 'अनुक्तविषया वस्तूपेक्षा अलंकार' है। तहाँ रहे सनकादि मनानो । जहँ घटसम्भव मुनिबर ज्ञानी । रामकथा मुनि बहु निधि बरनो । ज्ञान-जोनि पावक जिमि अरनी ॥४॥ शिवजी कहते हैं-ई भवानी ! सनकादिक यहाँ थे जहाँ जानी मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी रहते हैं । अगस्त्यमुनि ने यहुत तरह से रामचन्द्रजी की कथा वर्णन की, जो शाम रूपी अग्नि उत्पन्न करने में अरणी जैसी है ॥४॥ अरणी की लकड़ी क्ष घिसने से तुरन्त भाग उत्पन्न होती है। प्राचीन काल में ऋषि लोग यश के लिये इसी की लकड़ी रगड़ कर अग्नि उत्पन्न करते थे। दो-देखि राम मुनि आवत, हरषि दंडवत कीन्ह । स्वागत पूछि पोत-पट, प्रसु बैठन कह दोन्ह ॥३२॥ मुनियों को भाते देख कर रामचन्द्रजी ने प्रसन्न हो दंडवत किया और कुशल पूछ कर प्रमुने पीताम्यर बैठने के लिये श्रासन दिया ॥३२॥ बाग में टहलने श्राये थे, यहाँ कोई आसन विद्यमान न रहने से पीताम्बर पिला कर मुंनिवरों का विशेष सम्मान प्रकट किया। चौ०-कीन्ह दंडवत तीनिउँ माई । सहित पवन-सुत सुख अधिकाई । मुनि रघुपत्ति छबि अतुल बिलोकी । अये मगन मन सके ने रोकी ॥१॥ 'पवनकुमार के सहित तीनों भाइयों ने बड़े भानन्द साथ दण्डवत किया। मुनिगण । रघुनाथजी की अनन्त छवि को देख कर मन को न रोक सके, प्रेम में मग्न हो गये ॥१॥ सवमोचन ॥ स्यामल गात सरोरुह-लोचन । सुन्दरता मन्दिर एकटक रहे निमेष न लावहिँ । प्रभु कर जोरे सीस नवावहिं ॥२॥ श्यामल शरीर, कमल नयन, सुन्दरता के स्थान और संसार-बन्धन के छुड़ानेवाले राम-